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लेखक की तस्वीरDr.Madhavi Srivastava

भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 2

अपडेट करने की तारीख: 15 अक्तू॰

भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 2


भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया |

त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् || 11.2||


भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 2

महाभारत का गीता श्लोक और उसका गूढ़ार्थ

भगवद गीता का द्वितीय अध्याय, जो "सांख्य योग" के नाम से प्रसिद्ध है, जीवन और मृत्यु के रहस्यों की चर्चा करता है। इस श्लोक का प्रमुख संदेश आत्मा की अमरता और जीवन के निरंतर चक्र के बारे में है। आइए इस श्लोक के गूढ़ार्थ को समझें और देखें कि किस प्रकार यह जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करता है।


श्लोक का संपूर्ण भावार्थ

भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया |त्वत्त: कमलपत्राक्ष माहात्म्यमपि चाव्ययम् || 2 ||

भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 2 में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि उन्होंने जीवन और मृत्यु के संबंध में विस्तृत रूप से सुना है, और भगवान का अविनाशी महत्व समझा है। अर्जुन यहाँ आत्मा की अमरता और भगवान के अनंत स्वरूप की बात कर रहे हैं। कमलपत्राक्ष का अर्थ है "कमल के समान नेत्रों वाले"।


आत्मा की अमरता और कर्म का महत्व

गीता का यह श्लोक आत्मा की अमरता पर जोर देता है। आत्मा न जन्म लेती है और न ही मरती है, बल्कि यह शरीर के साथ केवल परिवर्तन करती है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यह समझाते हैं कि मृत्यु केवल भौतिक शरीर का नाश है, आत्मा का नहीं। आत्मा शाश्वत है, और इसलिए उसे मृत्यु का भय नहीं होना चाहिए। जीवन में आने वाले सुख-दुःख, सफलता-असफलता को समान भाव से देखना चाहिए। क्योंकि ये सब अस्थाई हैं और आत्मा इनसे परे है।


धर्म और कर्तव्य की अनिवार्यता

इस श्लोक में अर्जुन को यह भी बताया गया है कि उन्हें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। धर्म के मार्ग पर चलना और अपने कर्तव्यों को निभाना ही जीवन का सच्चा उद्देश्य है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन के लिए धर्म युद्ध लड़ना ही उनका कर्तव्य था, और श्रीकृष्ण ने उन्हें यह स्मरण कराया कि धर्म के मार्ग पर चलने से ही जीवन का उद्धार हो सकता है।


आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जीवन-मृत्यु का चक्र

गीता के इस श्लोक में जीवन-मृत्यु के चक्र का भी गहरा वर्णन किया गया है। संसार में जो भी उत्पन्न होता है, उसका अंत निश्चित है, और जो भी समाप्त होता है, उसका पुनः जन्म भी निश्चित है। यह जन्म और मृत्यु का चक्र निरंतर चलता रहता है। इसलिए, व्यक्ति को अपने कर्मों पर ध्यान देना चाहिए और अच्छे कर्मों के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए।


समर्पण और ध्यान का महत्व

गीता के इस श्लोक के अनुसार, भगवान का अविनाशी स्वरूप हमें यह संदेश देता है कि हमें अपने जीवन में भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण भाव रखना चाहिए। ध्यान और साधना के माध्यम से हम अपने मन को स्थिर कर सकते हैं और भगवान के सच्चे स्वरूप को अनुभव कर सकते हैं।

भगवद गीता के इस श्लोक में जो सच्चाई प्रकट की गई है, वह यह है कि जीवन में किसी भी प्रकार की अस्थिरता को हमें धैर्य और संतुलन के साथ देखना चाहिए। भगवान का ध्यान और भक्ति ही जीवन की सच्ची दिशा है।


जीवन के संघर्षों में संतुलन बनाए रखना

जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव और संघर्षों में संतुलन बनाए रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है। श्रीकृष्ण यहाँ अर्जुन को यही शिक्षा दे रहे हैं कि उन्हें हर स्थिति में संतुलन बनाए रखना चाहिए। चाहे वह जीत हो या हार, सुख हो या दुःख, व्यक्ति को समभाव से देखना चाहिए।


आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ

गीता के इस श्लोक के माध्यम से यह स्पष्ट होता है कि आध्यात्मिकता का मार्ग आत्मा की अमरता और भगवान के प्रति समर्पण से प्रारंभ होता है। हमें जीवन में किसी भी स्थिति को अंतिम सत्य नहीं मानना चाहिए, क्योंकि जीवन का वास्तविक उद्देश्य आत्मा की शांति और भगवान के साथ एकात्मता प्राप्त करना है।

समर्पण और कर्मयोग—दोनों का मेल ही हमें मोक्ष की ओर ले जाता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यही सिखा रहे हैं कि सही मार्ग पर चलने से ही जीवन सफल होता है।


गीता के इस श्लोक का गहन अध्ययन हमें जीवन के प्रति एक नया दृष्टिकोण देता है। आत्मा की अमरता, भगवान का अविनाशी स्वरूप और कर्मयोग का महत्व—ये सभी इस श्लोक के प्रमुख तत्व हैं। जीवन में आने वाले हर परिवर्तन को स्वीकार करना और धर्म के मार्ग पर चलना ही सच्चा अध्यात्म है। हमें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भगवान के प्रति समर्पण बनाए रखना चाहिए, क्योंकि यही मोक्ष का मार्ग है।



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