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भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 3

भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 3


एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर ।

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम ॥3॥


भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 3

भगवद गीता का 11वां अध्याय, जिसे "विश्वरूप दर्शन योग" कहा जाता है, में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने ईश्वर रूप का दर्शन करवाते हैं। भगवद गीता के इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उनके वास्तविक दिव्य स्वरूप से परिचित कराते हैं। अर्जुन, जो युद्ध के मैदान में भ्रमित और निराश हैं, भगवान से उनके विराट रूप को देखने की इच्छा व्यक्त करते हैं। यह अध्याय दर्शाता है कि भगवान की शक्ति और सामर्थ्य सीमाओं से परे हैं।


अर्जुन की प्रार्थना

द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम

अर्जुन का यह अनुरोध गीता के महत्वपूर्ण क्षणों में से एक है। अर्जुन ने पहले ही भगवान को एक आध्यात्मिक गुरु और मार्गदर्शक के रूप में देखा था, लेकिन अब वह भगवान के ईश्वर रूप का साक्षात्कार करना चाहते हैं। अर्जुन की यह इच्छा केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं है, बल्कि उनके भीतर की जिज्ञासा को दर्शाती है कि वह ईश्वर की वास्तविकता को अपनी आँखों से देखना चाहते हैं।


श्लोक 11.3 का भावार्थ

भगवद गीता, अध्याय 11, श्लोक 3 का सीधा अर्थ है: "जैसा आपने अपने परमेश्वर रूप का वर्णन किया है, वैसे ही मैं आपके उस असीम स्वरूप को देखना चाहता हूँ। हे पुरुषोत्तम, कृपया मुझे अपना ऐश्वर्यपूर्ण रूप दिखाइए।" यह श्लोक भगवान की दिव्यता और उनके विराट स्वरूप की अभिलाषा को प्रकट करता है। इस श्लोक में अर्जुन की भगवान के ईश्वर रूप को देखने की इच्छा केवल एक बाहरी दृष्टि नहीं है, बल्कि यह उनके भीतर की जिज्ञासा और आध्यात्मिक जागरूकता का प्रतीक है। अर्जुन अब उस दिव्य रूप को देखना चाहते हैं जो संपूर्ण सृष्टि का संचालन करता है। श्रीकृष्ण का यह रूप असीम, अनंत और सर्वव्यापक है।


पुरुषोत्तम की अवधारणा

"पुरुषोत्तम" शब्द का अर्थ है "सर्वोत्तम पुरुष"। श्रीकृष्ण को पुरुषोत्तम कहा जाता है क्योंकि वह न केवल संसार के रचयिता हैं, बल्कि वह प्रत्येक जीवात्मा के भीतर विद्यमान हैं। भगवान का यह विशेषण यह दर्शाता है कि वह सृष्टि के सबसे श्रेष्ठ हैं और उनकी शक्ति असीम है।

श्लोक 15.18 में कृष्ण पुरुषोत्तम को दो पुरुषों, क्षर (नाशवान) और अक्षर (अविनाशी) से श्रेष्ठ के रूप में परिभाषित करते हैं :

और क्योंकि मैं क्षर से परे हूँ और अक्षर से भी श्रेष्ठ हूँ, इसलिए वेद में मुझे "पुरुषोत्तम" के नाम से सम्मानित किया गया है। इस विशेषण का अर्थ है "सर्वोच्च पुरुष ", " सर्वोच्च प्राणी " या "सर्वोच्च ईश्वर"।

वैकल्पिक रूप से इसका अर्थ यह भी लगाया गया है कि "वह जो सर्वोच्च पुरुष है, क्षर (विनाशकारी - अर्थात प्रकृति ) और अक्षर (अविनाशी - अर्थात आत्मा ) से परे"।


विश्वरूप का महत्व

भगवान श्रीकृष्ण का विश्वरूप उनके अनंत स्वरूप और असीम शक्ति का प्रतीक है। जब अर्जुन भगवान का विराट रूप देखते हैं, तो वह समझते हैं कि भगवान किसी एक रूप या शरीर में सीमित नहीं हैं। भगवान की दिव्यता असीमित है और उनका अस्तित्व हर कण में व्याप्त है। इस दर्शन के बाद अर्जुन का जीवन बदल जाता है और वे भगवान की अनंत शक्ति को समझते हैं।


भगवान की अनंतता

भगवान श्रीकृष्ण का विराट रूप यह दर्शाता है कि उनकी शक्ति और सामर्थ्य किसी एक स्थान या समय में सीमित नहीं है। भगवान की अनंतता का अनुभव अर्जुन को उस सत्य से परिचित कराता है जिसे उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। यह दिव्यता किसी भी मानवीय कल्पना से परे है और भगवान की अद्वितीयता को प्रकट करती है।


अर्जुन की प्रार्थना का महत्व

अर्जुन की प्रार्थना यह दर्शाती है कि उन्होंने श्रीकृष्ण के दिव्य स्वरूप को समझने के लिए अपने मन को पूरी तरह से खोल दिया है। उनकी यह प्रार्थना हमें यह सिखाती है कि जब हम ईश्वर से जुड़े होते हैं और उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमें अपने भीतर की बाधाओं को छोड़ना चाहिए और पूर्ण समर्पण करना चाहिए।


आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विश्वरूप

विश्वरूप का आध्यात्मिक महत्व यह है कि यह हमें यह सिखाता है कि भगवान केवल किसी एक विशेष रूप में नहीं बंधे हैं। उनके कई रूप हैं और वे सृष्टि के हर कण में व्याप्त हैं। इस दर्शन से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि आत्मा और परमात्मा का संबंध कितना गहरा है।


विश्वरूप के माध्यम से आत्मज्ञान

भगवान के विश्वरूप के दर्शन के बाद, अर्जुन को यह समझ आता है कि जीवन केवल भौतिक वस्तुओं तक सीमित नहीं है। उन्होंने आत्मा और परमात्मा के बीच के गहरे संबंध को समझा और इससे उन्हें आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई। यह ज्ञान मोक्ष की ओर अग्रसर करता है।


अर्जुन का समर्पण और भगवान की कृपा

अर्जुन का भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण यह दर्शाता है कि जब हम अपनी इच्छाओं और अहंकार को छोड़कर ईश्वर की शरण में आते हैं, तो भगवान हमें अपने दिव्य रूप का साक्षात्कार कराते हैं। यह समर्पण ही हमें भगवान की कृपा प्राप्त करने में सक्षम बनाता हैI


श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो ज्ञान दिया, वह केवल युद्ध तक सीमित नहीं था, बल्कि वह जीवन के हर पहलू में लागू होता है। भगवान का उपदेश हमें यह सिखाता है कि जब हम ईश्वर की शरण में होते हैं, तब हम सही मार्ग पर होते हैं और हमारे जीवन में शांति और स्थिरता आती है। श्लोक 11.3 में अर्जुन की भगवान से उनके विराट रूप को देखने की इच्छा एक गहरे आध्यात्मिक सत्य की ओर इशारा करती है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि भगवान की दिव्यता किसी एक रूप या शरीर में सीमित नहीं होती। भगवान की शक्ति असीमित है और जब हम सच्चे समर्पण के साथ उनकी शरण में आते हैं, तब हमें उनकी अनंतता का अनुभव होता है।





















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