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आदित्य हृदयम्-एक अद्वितीय स्तोत्र का परिचय

आदित्य हृदयम्" एक प्राचीन वैदिक स्तोत्र है जो रामायण के युद्धकांड में मिलता है। इसे महर्षि अगस्त्य ने भगवान राम को रावण के साथ युद्ध के दौरान उपदेश के रूप में दिया था। यह स्तोत्र मुख्य रूप से भगवान सूर्य की महिमा का वर्णन करता है और इसे असीम शक्ति और मानसिक शांति का स्रोत माना जाता है। "आदित्य हृदयम्" का पाठ करने से शत्रुओं पर विजय, मानसिक शांति, स्वास्थ्य लाभ और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति होती है। इस स्तोत्र के श्लोक सूर्य को ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवताओं के रूप में दर्शाते हैं, जिससे इसकी महिमा और अधिक बढ़ जाती है। इसका नियमित पाठ धार्मिक, आध्यात्मिक, और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अत्यंत लाभकारी माना गया है।


आदित्य हृदयम्


आदित्य हृदयम्" रामायण के युद्धकांड का एक प्रसिद्ध स्तोत्र है, जिसे भगवान राम को महर्षि अगस्त्य द्वारा रावण से युद्ध के दौरान दिया गया था। यह स्तोत्र मुख्य रूप से भगवान सूर्य की स्तुति है और इसे अत्यंत शक्तिशाली माना जाता है।


आदित्य हृदयम् क्या है?

"आदित्य हृदयम्" का अर्थ है "आदित्य (सूर्य) का हृदय"। यह स्तोत्र भगवान सूर्य की महिमा का वर्णन करता है और शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने का मार्गदर्शन देता है। यह आध्यात्मिक शक्ति और मानसिक शांति का स्रोत है।


ध्यानम् का महत्त्व

ध्यानम् के श्लोक से शुरुआत होती है, जो भगवान सूर्य को समर्पित है। यह श्लोक जगत के रचयिता, पालनकर्ता, और संहारकर्ता के रूप में सूर्य का वर्णन करता है:

"नमस्सवित्रे जगदेक चक्षुसेजगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवेत्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणेविरिंचि नारायण शंकरात्मने"


आदित्य हृदयम् के श्लोकों की विशेषताएँ

इस स्तोत्र में कुल 24 श्लोक हैं, जिनमें भगवान सूर्य की महिमा और शक्ति का वर्णन किया गया है। इन श्लोकों में सूर्य को ब्रह्मा, विष्णु, शिव और अन्य देवताओं का स्वरूप माना गया है।

श्लोक 1-5: युद्ध की पृष्ठभूमि और ऋषि अगस्त्य का उपदेश

रामायण के युद्धकांड में भगवान राम रावण के साथ युद्ध करते हुए थक जाते हैं। उस समय, ऋषि अगस्त्य प्रकट होते हैं और राम को "आदित्य हृदयम्" का उपदेश देते हैं।

"राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि"

श्लोक 6-10: सूर्य देव का महिमा वर्णन

इन श्लोकों में सूर्य देव की महिमा का विस्तृत वर्णन किया गया है। उन्हें विश्व के पालक, रक्षक और संहारक के रूप में सम्मानित किया गया है।

"रश्मिमंतं समुद्यंतं देवासुर नमस्कृतम्पूजयस्व विवस्वंतं भास्करं भुवनेश्वरम्"

श्लोक 11-15: सूर्य के विभिन्न रूप और उनके प्रतीक

सूर्य को विभिन्न नामों और रूपों में वर्णित किया गया है जैसे कि 'हरिदश्वः', 'हिरण्यगर्भः', 'मरीचिमान्' आदि। ये सभी नाम सूर्य की विशेषताओं और गुणों को दर्शाते हैं।

श्लोक 16-20: सूर्य देव की उपासना और उनके गुण

इन श्लोकों में सूर्य की उपासना के लाभ और उनके गुणों का उल्लेख किया गया है। सूर्य को 'तमोघ्न', 'हिमघ्न', 'शत्रुघ्न' आदि नामों से पुकारा गया है, जो उनके नकारात्मकता नाशक स्वरूप को दर्शाते हैं।

श्लोक 21-24: सूर्य देव का विश्व पर प्रभाव

इन श्लोकों में सूर्य को सृष्टि के पालक और संहारक के रूप में वर्णित किया गया है। वे सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं और अग्निहोत्र आदि यज्ञों के फल भी उन्हीं से प्राप्त होते हैं।


फलश्रुतिः


आदित्य हृदयम्: श्लोक 25 से 31 का हिंदी में विवरण


एन मापत्सु कृच्छ्रेषु कांतारेषु भयेषु च ।

कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावशीदति राघव ॥ 25 ॥


इस श्लोक में महर्षि अगस्त्य भगवान राम को समझाते हैं कि "हे राघव (राम)! जो व्यक्ति इस आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ संकटों, विपत्तियों, कठिनाइयों, जंगलों में या किसी भी प्रकार के भय में करता है, वह कभी दुखी नहीं होता।" इसका अर्थ यह है कि इस स्तोत्र का पाठ करने से सभी प्रकार की विपत्तियों से मुक्ति मिलती है।


पूजयस्वैन मेकाग्रः देवदेवं जगत्पतिम् ।

एतत् त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥ 26 ॥


इस श्लोक में, महर्षि अगस्त्य भगवान राम को यह उपदेश देते हैं कि "हे राम, एकाग्रचित्त होकर जगत के देवों के देव (सूर्य) की पूजा करो। इस स्तोत्र का तीन बार पाठ करने पर युद्ध में निश्चित ही विजय प्राप्त होगी।" इसका आशय यह है कि यदि कोई व्यक्ति पूरी श्रद्धा और ध्यान से इस स्तोत्र का पाठ करता है, तो उसे सफलता मिलती है।


अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि ।

एवमुक्त्वा तदागस्त्यो जगाम च यथागतम् ॥ 27 ॥


इस श्लोक में महर्षि अगस्त्य राम को आशीर्वाद देते हैं कि "हे महाबाहो राम, इस क्षण तुम रावण का वध करोगे।" ऐसा कहकर महर्षि अगस्त्य वापस अपने स्थान को चले जाते हैं।


एतच्छ्रुत्वा महातेजाः नष्टशोकोऽभवत्तदा ।

धारयामास सुप्रीतः राघवः प्रयतात्मवान् ॥ 28 ॥


इस श्लोक में कहा गया है कि जब महाबलवान राम ने महर्षि अगस्त्य के वचनों को सुना, तो उनका सारा शोक नष्ट हो गया। वे अत्यधिक प्रसन्न हुए और मन में धैर्य धारण कर लिया।


आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान् ।

त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥ 29 ॥


इस श्लोक में वर्णन किया गया है कि भगवान राम ने सूर्यदेव की ओर देखकर इस स्तोत्र का पाठ किया और अत्यंत प्रसन्न हो गए। फिर, तीन बार जल पीकर शुद्ध होकर, उन्होंने अपना धनुष उठाया और युद्ध के लिए तैयार हो गए।


रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत् ।

सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत् ॥ 30 ॥


इस श्लोक में बताया गया है कि राम का हृदय उत्साह से भर गया और वे रावण को देखकर युद्ध के लिए आगे बढ़े। उन्होंने रावण के वध के लिए अपना संपूर्ण प्रयास करने का संकल्प लिया।


अध रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।

निशिचरपति संक्षयं विदित्वा सुरगण मध्यगतो वचस्त्वरेति ॥ 31


इस अंतिम श्लोक में वर्णन किया गया है कि सूर्यदेव, राम को देखकर अत्यंत प्रसन्न हो गए और आकाश से एक दिव्य वाणी आई, जिसमें कहा गया कि "हे राम, राक्षसों के राजा (रावण) का अंत निश्चित है।" इस प्रकार, सभी देवताओं ने मिलकर राम की विजय की भविष्यवाणी की।


ये श्लोक "आदित्य हृदयम्" के अंत के श्लोक हैं जो भगवान राम को रावण के साथ युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए महर्षि अगस्त्य द्वारा दिए गए थे। इस स्तोत्र का पाठ केवल युद्ध में विजय के लिए ही नहीं, बल्कि जीवन के हर कठिन समय में मानसिक शांति, आत्मविश्वास, और शक्ति प्राप्त करने के लिए किया जा सकता है। इस स्तोत्र का महत्व केवल धार्मिक दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी अत्यधिक है।


आदित्य हृदयम् का आध्यात्मिक महत्त्व

आदित्य हृदयम् का पाठ करने से मानसिक शांति मिलती है और व्यक्ति को अपनी आंतरिक शक्तियों का बोध होता है। यह हमें आत्म-शुद्धि और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग पर ले जाता है।


आदित्य हृदयम् के नियमित पाठ के लाभ

  • शत्रुओं पर विजय: यह स्तोत्र शत्रुओं को परास्त करने की शक्ति प्रदान करता है।

  • मानसिक शांति: नियमित पाठ से मन को शांति और स्थिरता मिलती है।

  • स्वास्थ्य लाभ: सूर्य उपासना से शारीरिक स्वास्थ्य में सुधार होता है और आयु में वृद्धि होती है।


योग और ध्यान में आदित्य हृदयम् का उपयोग

योग और ध्यान के अभ्यास में भी आदित्य हृदयम् का उपयोग किया जाता है। इसे ध्यान के समय जपने से ध्यान की गहराई बढ़ती है और आंतरिक शांति की अनुभूति होती है।


कैसे करें आदित्य हृदयम् का पाठ?

इस स्तोत्र का पाठ प्रातःकाल सूर्योदय के समय किया जाता है। पाठ करते समय व्यक्ति को पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए और मन को एकाग्र करके सूर्य देव का ध्यान करना चाहिए।


आदित्य हृदयम् एक शक्तिशाली स्तोत्र है जो न केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिए, बल्कि मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए भी अत्यंत लाभकारी है। इसके नियमित पाठ से व्यक्ति जीवन में समृद्धि, शांति, और विजय प्राप्त कर सकता है।


अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)

  1. आदित्य हृदयम् का पाठ कब करना चाहिए? प्रातःकाल सूर्योदय के समय इसका पाठ करना सबसे उत्तम माना जाता है।

  2. क्या आदित्य हृदयम् का पाठ हर कोई कर सकता है? हाँ, इसका पाठ कोई भी कर सकता है, चाहे वह किसी भी आयु का हो।

  3. आदित्य हृदयम् का पाठ किससे संबंधित है? यह स्तोत्र मुख्य रूप से भगवान सूर्य की स्तुति और उनके महत्त्व का वर्णन करता है।

  4. क्या आदित्य हृदयम् से स्वास्थ्य लाभ भी होते हैं? हाँ, इसके नियमित पाठ से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है।

  5. आदित्य हृदयम् के पाठ से कौन-कौन से लाभ मिलते हैं? यह शत्रुओं पर विजय, मानसिक शांति, और आयु वृद्धि में सहायक होता है।



आदित्य हृदयम्


ध्यानम्

नमस्सवित्रे जगदेक चक्षुसे

जगत्प्रसूति स्थिति नाशहेतवे

त्रयीमयाय त्रिगुणात्म धारिणे

विरिंचि नारायण शंकरात्मने


ततो युद्ध परिश्रांतं समरे चिंतयास्थितम् ।

रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥ 1 ॥


दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।

उपागम्याब्रवीद्रामं अगस्त्यो भगवान् ऋषिः ॥ 2 ॥


राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम् ।

येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि ॥ 3 ॥


आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रु-विनाशनम् ।

जयावहं जपेन्नित्यं अक्षय्यं परमं शिवम् ॥ 4 ॥


सर्वमंगल-मांगल्यं सर्वपाप-प्रणाशनम् ।

चिंताशोक-प्रशमनं आयुर्वर्धनमुत्तमम् ॥ 5 ॥


रश्मिमंतं समुद्यंतं देवासुर नमस्कृतम् ।

पूजयस्व विवस्वंतं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥ 6 ॥


सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।

एष देवासुर-गणान् लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥ 7 ॥


एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कंदः प्रजापतिः ।

महेंद्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥ 8 ॥


पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः ।

वायुर्वह्निः प्रजाप्राणः ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥ 9 ॥


आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान् ।

सुवर्णसदृशो भानुः हिरण्यरेता दिवाकरः ॥ 10 ॥


हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्ति-र्मरीचिमान् ।

तिमिरोन्मथनः शंभुः त्वष्टा मार्तांडकोंऽशुमान् ॥ 11 ॥


हिरण्यगर्भः शिशिरः तपनो भास्करो रविः ।

अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥ 12 ॥


व्योमनाथ-स्तमोभेदी ऋग्यजुःसाम-पारगः ।

घनावृष्टिरपां मित्रः विंध्यवीथी प्लवंगमः ॥ 13 ॥


आतपी मंडली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।

कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ॥ 14 ॥


नक्षत्र ग्रह ताराणां अधिपो विश्वभावनः ।

तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्म-न्नमोऽस्तु ते ॥ 15 ॥


नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।

ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥ 16 ॥


जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।

नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥ 17 ॥


नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।

नमः पद्मप्रबोधाय मार्तांडाय नमो नमः ॥ 18 ॥


ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्य-वर्चसे ।

भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥ 19 ॥


तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नाया मितात्मने ।

कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥ 20 ॥


तप्त चामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे ।

नमस्तमोऽभि निघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे ॥ 21 ॥


नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः ।

पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥ 22 ॥


एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।

एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्नि होत्रिणाम् ॥ 23 ॥


वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।

यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः ॥ 24 ॥


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