इस शांति पाठ का उच्चारण साधना, पूजा या ध्यान के प्रारंभ और समापन पर किया जाता है, जिससे मन को शांति, संतुलन और पूर्णता की भावना प्राप्त होती है। यह मंत्र हमें यह समझने में मदद करता है कि सम्पूर्णता और शांति हमारे भीतर ही विद्यमान हैं और हम सभी को एक-दूसरे से जोड़ती हैं।
यह शांति पाठ ईशावास्योपनिषद से लिया गया है और इसका गहरा आध्यात्मिक महत्व है। इस मंत्र का अर्थ है कि यह (संसार) पूर्ण है, वह (ब्रह्म) पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है। जब पूर्ण से पूर्ण को निकाल लिया जाता है,तब भी पूर्ण ही शेष रहता है। यह मंत्र हमें इस सृष्टि की सम्पूर्णता और अखंडता का बोध कराता है, जिसमें हर वस्तु और हर स्थिति अपने आप में संपूर्ण है।
ईशावास्योपनिषद के इस शांति पाठ का नियमित जाप व्यक्ति के जीवन में मानसिक शांति और आध्यात्मिक संतुलन लाता है। यह मंत्र हमें आत्मिक पूर्णता का एहसास कराता है और हमारे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है।
ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते ।
पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॥
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥
ॐ। वह ब्रह्म अनंत है, और उससे उत्पन्न यह ब्रह्मांड भी अनंत है। उस अनंत से ही अनंत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। उस अनन्त की अन्नतता के रहते हुए अंत में अनंत ही शेष रहता है। अर्थात् इस अन्नतता का कभी नाश नहीं होता। इसी से सब उत्पन्न हैं इसके पश्चात भी यह पूर्ण हैं, यहां अभाव का कभी कोई स्थान नहीं है। पूर्णता से पूर्ण ही उत्पन्न होता है और महाप्रलय में उसी पूर्णता में सब समाहित हो जाता है।
ओम! शांति! शांति! शांति!
ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते ।
पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॥
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥
ॐ ई॒शा वा॒स्य॑मि॒दग्ं सर्वं॒-यँत्किञ्च॒ जग॑त्वां॒ जग॑त् ।
तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑स्वि॒द्धनम्᳚ ॥ 1 ॥
कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा᳚णि जिजीवि॒षेच्च॒तग्ं समाः᳚ ।
ए॒वं त्वयि॒ नान्यथे॒तो᳚ऽस्ति॒ न कर्म॑ लिप्यते॑ नरे᳚ ॥ 2 ॥
अ॒सु॒र्या॒ नाम॒ ते लो॒का अ॒न्धेन॒ तम॒साऽऽवृ॑ताः ।
ताग्ंस्ते प्रेत्या॒भिग॑च्छन्ति॒ ये के चा᳚त्म॒हनो॒ जनाः᳚ ॥ 3 ॥
अने᳚ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी᳚यो॒ नैन॑द्दे॒वा आ᳚प्नुव॒न्पूर्व॒मर्ष॑त् ।
तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये᳚ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मिन्᳚न॒पो मा᳚त॒रिश्वा᳚ दधाति ॥ 4 ॥
तदे᳚जति॒ तन्नेज॑ति॒ तद्दू॒रे तद्व॑न्ति॒के ।
तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः ॥ 5 ॥
यस्तु सर्वा᳚णि भू॒तान्या॒त्मन्ये॒वानु॒पश्य॑ति ।
स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न विहु॑गुप्सते ॥ 6 ॥
यस्मि॒न्सर्वा᳚णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू᳚द्विजान॒तः ।
तत्र॒ को मोहः॒ कः शोकः॑ एक॒त्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥ 7 ॥
स पर्य॑गाच्चु॒क्रम॑का॒यम॑प्रण॒म॑स्नावि॒रग्ं शु॒द्धमपा᳚पविद्धम् ।
क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भू-र्या᳚थातथ्य॒तोऽर्था॒न्
व्य॑दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा᳚भ्यः ॥ 8 ॥
अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते ।
ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॑ वि॒द्याया᳚ग्ं र॒ताः ॥ 9 ॥
अ॒न्यदे॒वायुरि॒द्यया॒ऽन्यदा᳚हु॒रवि॑द्यया ।
इति॑ शुशुम॒ धीरा᳚णां॒-येँ न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥ 10 ॥
वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ग्ं स॒ह ।
अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्ययाऽमृत॑मश्नुते ॥ 11 ॥
अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ येऽसम्᳚भूतिमु॒पास॑ते ।
ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॒ सम्भू᳚त्याग्ं र॒ताः ॥ 12 ॥
अ॒न्यदे॒वाहुः सम्᳚भ॒वाद॒न्यदा᳚हु॒रसम्᳚भवात् ।
इति॑ शुश्रुम॒ धीरा᳚णां॒-येँ न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥ 13 ॥
सम्भू᳚तिं च विणा॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ग्ं स॒ह ।
वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं ती॒र्त्वा सम्भू᳚त्या॒ऽमृत॑मश्नुते ॥ 14 ॥
हि॒र॒ण्मये᳚न॒ पात्रे᳚ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्᳚ ।
तत्वं पू᳚ष॒न्नपावृ॑णु स॒त्यध᳚र्माय दृ॒ष्टये᳚ ॥ 15 ॥
पूष॑न्नेकर्षे यम सूर्य॒ प्राजा᳚पत्य॒ व्यू᳚ह र॒श्मीन्
समू᳚ह॒ तेजो॒ यत्ते᳚ रू॒पं कल्या᳚णतमं॒ तत्ते᳚ पश्यामि ।
यो॒ऽसाव॒सौ पुरु॑षः॒ सो॒ऽहम॑स्मि ॥ 16 ॥
वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथेदं भस्मा᳚न्त॒ग्ं॒ शरी॑रम् ।
ॐ 3 क्रतो॒ स्मर॑ कृ॒तग्ं स्म॑र॒ क्रतो॒ स्मर॑ कृ॒तग्ं स्म॑र ॥ 17 ॥
अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा᳚ रा॒ये अ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒यना॑नि वि॒द्वान् ।
यु॒यो॒ध्य॒स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्टां ते॒ नम॑उक्तिं-विँधेम ॥ 18 ॥
ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते ।
पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते
ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥
-- ईशावास्योपनिषद् (ईशोपनिषद्)
॥ईशावास्योपनिषद: हिंदी अनुवाद॥
१. जगत में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादित है (अर्थात उसे भगवत स्वरूप अनुभव करना चाहिये)। तुम्हें अपने कर्म का पालन त्याग भाव से करना चाहिए, स्वयं को कर्ता नहीं समझना चाहिए। किसी पराई वस्तु या धन पर स्वामित्व का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।
२. अर्थात् , इस भाव से कि सब कुछ ईश्वर ही है उससे भिन्न कुछ भी नहीं - अच्छा हो या बुरा सब ईश्वर का ही है, इस भाव से प्रसन्न रहते हुए तुम सौ वर्षों तक जियो। जो मनुष्य अभिमान न रखते हुए कर्म से निर्लिप्त रहेगा, उसे फल या उसके परिणामों को नहीं भोगना पड़ेगा।
३.असुर सम्बंधित लोक आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित है। अर्थात् वह लोग जो ईश्वर तत्व में विश्वास नहीं करते वहअज्ञान रूपी घोर अन्धकार से व्याप्त हैं। ऐसे लोग आत्मा का हनन करते हैं मृत्यु के पश्चात् वे उसी अन्धकार को प्राप्त होते हैं।
४. वह परमात्वतत्व अपने स्वरूप से विचलित न होने वाला एक है। वह मन से भी तेज गति वाला है, वह इन्द्रिया से प्राप्त होने वाला नहीं है, क्योंकि यह उन सबसे पहले (आगे) गया हुआ (विद्यमान ) है। यह स्थिर होने पर भी अन्य सब गतिशिलों का अतिक्रमण कर जाता है। उसके रहते हुए अर्थात् उसी में, उसी की सत्ता में ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृतिरुप कर्मों का विभाग करता है॥
५. वह परमात्वतत्व गतिमान भी है और नहीं भी, वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अन्दर है और सबके बाहर भी है॥
६. जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतो में भी आत्मा को ही देखता है वह इस (सर्वात्म दर्शन) के कारण ही किसी से घृणा नहीं करता॥
७. जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मतत्व हो गये उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान् को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ?
८. वह परमात्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू (स्वयं ही होने वाला) है। उसी ने नित्यसिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीती से अर्थों (कर्तव्यों अथवा पदार्थो) का विभाग किया है॥
९. जो अविद्या की ही उपासना करते हैं अर्थात् जो इस माया जगत को सत्य मानते हैं वह (अविद्यारूप) घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो इसी अविद्या रूप उपासना में ही रत रहते है वे मानो उससे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं॥
१०. विद्या (देवताज्ञान) से और ही फल बताया गया है तथा अविद्या (कर्म) से और ही फल बताया गया है। अर्थात् दोनों के कर्मफल भिन्न हैं। ऐसा बुद्धिमान पुरूषों के द्वारा सुना गया है, जिन्होंने इस परम ज्ञान की व्याख्या की थी॥
११. जो विद्या और अविद्या-को एक ही साथ जनता है अर्थात् जो दोनों को उस परमतत्व का ही अंग मानता है। वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है॥ अर्थात् वह उस परमतत्व में लीन हो जाता है।
१२. जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति) की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्य ब्रह्मा) में रत हैं वे मानो उससे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते है॥
१३. कार्यब्रह्म की उपासना से और ही फल बताया गया है ; तथा अव्यक्तोपासना से और ही फल बताया गया है। ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी॥
१४. जो असम्भूति और कार्यब्रह्म है – इन दोनों को साथ साथ जानता है, अर्थात् दोनों को एक ही समझता है, वह कार्यब्रम्हा की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा (प्रकृतिलयरुप) अमरत्व को प्राप्त हो जाता है॥
१५. आदित्यमंडलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन ! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे प्रकट कर दे, दृश्यमान बना दे॥
१६. हे जगत पोषक सूर्य ! हे एकाकी गमन करने वाले ! हे यम (संसार नियमन बनाने वाले) ! हे सूर्य (प्राण और रस का शोषण करने वाले) ! हे प्रजापति नंदन ! तू अपनी किरणों को हटा ले (अपने तेज को समेट ले)। तेरा जो अतिशय कल्याणमय रूप है उसे मैं देखता हूँ। यह जो आदित्यमंडलस्थ पुरुष है वह मैं ही हूँ॥
१७. अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायुरूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्म ही शेष रह जाये। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए संकल्प को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए संकल्प को स्मरण कर॥
१८. हे अग्ने ! हमें कर्म फल भोग के लिए सन्मार्ग पर ले चल।हे देव ! तू समस्त ज्ञान और कर्मो को जानने वाला है। हमारे संपूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार करते हैं॥
Such valuable insights in every post!