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  • सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करते ही मिलेंगे चमत्कारी लाभ

    सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करने से विपदाएं स्वत: ही दूर हो जाती हैं और समस्त कष्टों से मुक्ति मिलती है। ये सिद्ध स्त्रोत है और इसे करने से दुर्गासप्तशती पढ़ने के समान पुण्य मिलता है। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र: चमत्कारी लाभ और महत्व सिद्ध कुंजिका स्तोत्र एक अत्यंत प्रभावशाली और पुण्यदायी स्तोत्र है, जिसे भक्तजन समस्त विपदाओं और कष्टों से मुक्ति पाने के लिए पाठ करते हैं। इसे सिद्ध स्तोत्र माना गया है और इसके पाठ का फल श्री दुर्गा सप्तशती के संपूर्ण पाठ के समान प्राप्त होता है। आइए, इस पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र के विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त करें और इसके माध्यम से अपने जीवन की सभी समस्याओं का समाधान करें। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र के लाभ सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को सभी प्रकार की बाधाओं से मुक्ति मिलती है। यह शत्रु दमन, ऋण मुक्ति, करियर में उन्नति, विद्या में प्रगति, और शारीरिक एवं मानसिक सुख की प्राप्ति के लिए अत्यंत प्रभावशाली है। विशेष रूप से नवरात्रि के दौरान इसका पाठ करके व्यक्ति दुर्गा सप्तशती के संपूर्ण पाठ के बराबर पुण्य अर्जित कर सकता है। कुंजिका स्तोत्र का महत्व इस स्तोत्र का नाम 'सिद्ध कुंजिका' इसीलिए रखा गया है क्योंकि यह समस्याओं का कुंजी रूप में समाधान प्रदान करता है। जब किसी समस्या का समाधान नहीं मिल रहा हो या किसी प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा हो, तब सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ अत्यंत लाभकारी सिद्ध होता है। भगवती दुर्गा की कृपा से यह स्तोत्र व्यक्ति की रक्षा करता है और उसे सुख-समृद्धि प्रदान करता है। पाठ विधि तैयारी : स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और एक पवित्र स्थान पर बैठें। स्थापन : देवी दुर्गा की मूर्ति या चित्र के सामने दीपक जलाएं। संकल्प : मन में देवी दुर्गा के प्रति श्रद्धा और भक्ति का संकल्प लें। पाठ : सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करें और भगवती दुर्गा का ध्यान करें। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र भगवान शिव की महिमा का अद्वितीय स्तोत्र है, जो भक्तों को उनकी कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने में सहायता करता है। इसका नियमित पाठ जीवन में सुख, शांति और समृद्धि लाता है। इस स्तोत्र का प्रभाव इतना शक्तिशाली है कि इसके पाठ से जीवन के सभी संकट और समस्याएं दूर हो जाती हैं। सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ देवी दुर्गा की आराधना का एक अमूल्य साधन है, जो प्रत्येक भक्त के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भक्तिभाव से भरे इस स्तोत्र का जाप करके हम देवी दुर्गा की कृपा प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं। जय माता दी! सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम् ॐ अस्य श्रीकुंजिकास्तोत्रमंत्रस्य सदाशिव ऋषिः, अनुष्टुप् छंदः,श्रीत्रिगुणात्मिका देवता, ॐ ऐं बीजं, ॐ ह्रीं शक्तिः, ॐ क्लीं कीलकम्,मम सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः । शिव उवाच शृणु देवि प्रवक्ष्यामि कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् । येन मंत्रप्रभावेण चंडीजापः शुभो भवेत् ॥ 1 ॥ न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम् । न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम् ॥ 2 ॥ कुंजिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत् । अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम् ॥ 3 ॥ गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति । मारणं मोहनं वश्यं स्तंभनोच्चाटनादिकम् । पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुंजिकास्तोत्रमुत्तमम् ॥ 4 ॥ अथ मंत्रः । ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे । ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वलऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा ॥ 5 ॥ इति मंत्रः । नमस्ते रुद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि । नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि ॥ 6 ॥ नमस्ते शुंभहंत्र्यै च निशुंभासुरघातिनि । जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरुष्व मे ॥ 7 ॥ ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका । क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते ॥ 8 ॥ चामुंडा चंडघाती च यैकारी वरदायिनी । विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मंत्ररूपिणि ॥ 9 ॥ धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी । क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु ॥ 10 ॥ हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जंभनादिनी । भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः ॥ 11 ॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षम् । धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा ॥ 12 ॥ पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा । सां सीं सूं सप्तशती देव्या मंत्रसिद्धिं कुरुष्व मे ॥ 13 ॥ कुंजिकायै नमो नमः । इदं तु कुंजिकास्तोत्रं मंत्रजागर्तिहेतवे । अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति ॥ 14 ॥ यस्तु कुंजिकया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत् । न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा ॥ 15 ॥ इति श्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वतीसंवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

  • प्रणम्य शिरसादेवं गौरी पुत्रम् स्तोत्र का अर्थ और लाभ

    भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र गणेश का पूजन भारत में और विश्वभर में गणेश चतुर्थी के त्योहार के दौरान बड़े ही श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाया जाता है। उनकी बुद्धि, विवेक विनम्रता और माता- पिता की भक्ति के गुणों ने उन्हें एक प्रिय देवता बना दिया है, जो केवल बाधाओं को दूर करने के लिए ही नहीं, अपितु अपने भक्तों पर अनुग्रह और कृपा भी बरसाते हैं। भगवान गणेश के शक्तिशाली स्तोत्र: संकटों से मुक्ति और सफलता की कुंजी भगवान गणेश को विघ्न-हर्ता कहा जाता है, जो सभी प्रकार की समस्याओं और बाधाओं को दूर करने वाले हैं। नारद पुराण से लिया गया एक विशेष स्तोत्र भगवान गणेश के सबसे प्रभावशाली स्तोत्रों में से एक है। इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति को जीवन में शांति, स्वास्थ्य लाभ, धन की वृद्धि, और सभी प्रकार की बुराइयों से निवृत्ति मिलती है। आइए, इस पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र के विषय में संपूर्ण जानकारी प्राप्त करें और इसके माध्यम से अपने जीवन की सभी समस्याओं का समाधान करें। भगवान गणेश के स्तोत्र का महत्व भगवान गणेश के इस स्तोत्र का जाप करने से सभी प्रकार की समस्याएं और बाधाएं दूर हो जाती हैं। जब जीवन में किसी भी प्रकार की बाधा आए, तो प्रत्येक बुधवार को इस स्तोत्र का पाठ करने से छः महीने के भीतर ही सभी वांछित फल प्राप्त होते हैं। यह स्तोत्र भयमुक्ति प्रदान करता है और जीवन में सिद्धि की प्राप्ति में सहायक सिद्ध होता है। स्तोत्र के लाभ शांति और स्थिरता : इसके पाठ से मन और बुद्धि में शांति और स्थिरता प्राप्त होती है, जिससे व्यक्ति का जीवन सफलता की ओर अग्रसर होता है। स्वास्थ्य लाभ : नियमित पाठ से स्वास्थ्य में सुधार होता है और शारीरिक एवं मानसिक सुख की प्राप्ति होती है। धन की वृद्धि : यह स्तोत्र धन की वृद्धि में सहायक होता है और जीवन में समृद्धि लाता है। विद्यार्थियों के लिए लाभकारी : विद्यार्थियों को विद्या में प्रगति और सफलता मिलती है। संकटों से मुक्ति : इस स्तोत्र का जाप करने से व्यक्ति को समस्त प्रकार की संकटों और दुर्भावनाओं से मुक्ति मिलती है। सिद्धि की प्राप्ति : एक साल तक इसे नियमित रूप से पाठ करने से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। पाठ विधि तैयारी : स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और एक पवित्र स्थान पर बैठें। स्थापन : भगवान गणेश की मूर्ति या चित्र के सामने दीपक जलाएं। संकल्प : मन में भगवान गणेश के प्रति श्रद्धा और भक्ति का संकल्प लें। पाठ : भगवान गणेश के स्तोत्र का पाठ करें और उनका ध्यान करें। भगवान गणेश का यह स्तोत्र एक अत्यंत प्रभावशाली और पुण्यदायी स्तोत्र है, जिसका नियमित पाठ करने से व्यक्ति को जीवन में शांति, स्वास्थ्य लाभ, धन की वृद्धि, और सभी प्रकार की बुराइयों से निवृत्ति मिलती है। भगवान गणेश की कृपा से इस स्तोत्र का पाठ करने वाले को सभी प्रकार की शुभ फल प्राप्त होते हैं और वे उनके जीवन में खुशहाली लाते हैं। भगवान गणेश की भक्ति और उनके स्तोत्र का पाठ करके हम अपने जीवन की सभी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को सफल बना सकते हैं। गणपति बप्पा मोरया! नारद उवाच प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम् । भक्तावासं स्मरेन्नित्यमायुष्कामार्थसिद्धये ॥ नारद जी कहते हैं- पहले मस्तक झुकाकर गौरीपुत्र विनायका देव को प्रणाम करके प्रतिदिन आयु, अभीष्ट मनोरथ और धन आदि प्रयोजनों की सिद्धि के लिए भक्त के हृदय में वास करने वाले गणेश जी का स्मरण करें । प्रथमं वक्रतुण्डं च एकदन्तं द्वितीयकम् । तृतीयं कृष्णपिङ्गाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम् ॥ 2 ॥ लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च । सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्णं तथाष्टमम् ॥ 3 नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकम् । एकादशं गणपतिं द्वादशं तु गजाननम् ॥ 4 ॥ द्वादशैतानि नामानि त्रिसन्ध्यं यः पठेन्नरः । न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं परम् ॥ 5 जिनका पहला नाम ‘वक्रतुण्ड’ है, दूसरा ‘एकदन्त’ है, तीसरा ‘कृष्णपिङ्गाक्षं’ है, चौथा ‘गजवक्त्र’ है, पाँचवाँ ‘लम्बोदर’, छठा ‘विकट’, सातवाँ ‘विघ्नराजेन्द्रं’, आठवाँ ‘धूम्रवर्ण’, नौवां ‘भालचंद्र’, दसवाँ ‘विनायक’, ग्यारहवाँ ‘गणपति’, और बारहवाँ नाम ‘गजानन’ है। जो कोई भी सुबह, दोपहर और शाम इन बारह नामों को पढ़ता है, उसे कभी भी पराजय का डर नहीं देखना होगा और वह यह नाम-स्मरण उसके लिए सभी सिद्धियों का उत्तम साधन है। विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् पुत्रार्थी लभते पुत्रान्मोक्षार्थी लभते गतिम् ॥ 6 ॥ जो शिक्षा ग्रहण करेगा उसे ज्ञान मिलेगा, जो धन कमाना चाहता है उसे धन प्राप्त होगा, जो पुत्र की इच्छा रखता है उसे पुत्र मिलेगा और जो मोक्ष चाहता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी। जपेद्गणपतिस्तोत्रं षड्भिर्मासैः फलं लभेत् । संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥ 7 ॥ मंत्र का जाप करने से छह महीने के अंदर ही गणपति को फल दिखने लगेगा और एक वर्ष तक जप करने से मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। अष्टभ्यो ब्राह्मणेभ्यश्च लिखित्वा यः समर्पयेत् । तस्य विद्या भवेत्सर्वा गणेशस्य प्रसादतः ॥ 8 ॥ जो इस स्तोत्र को भोजपत्र पर लिखकर आठ ब्राह्मणों को दान करता है, गणेश जी की कृपा से उसे सम्पूर्ण विद्या की प्राप्ति होती है। इति श्रीनारदपुराणे सङ्कष्टनाशनं नाम गणेश स्तोत्रम् ।

  • आत्मविश्वास प्राप्त करने के लिए आंजनेय स्तोत्र का करें पाठ

    हनुमान जी हिंदू धर्म में सर्वोच्च देवता और श्री राम के परम भक्त माने जाते हैं। उनका जन्म चैत्र पूर्णिमा को हरियाणा के कैथल जिले में हुआ था। उन्हें आंजनेय, मारुतिनंदन और केसरीनंदन के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने राम और सीता के पुनर्मिलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देवी काली के द्वारपाल के रूप में पूजित हैं। शिव पुराण में हनुमान को शिव और मोहिनी के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। उनकी उपासना से आत्मविश्वास बढ़ता है और जीवन में सकारात्मकता आती है। हनुमान जी चिरंजीवी हैं और आज भी अपने भक्तों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। हनुमान जी: भक्त, देवता और चिरंजीवी हनुमान जी का नाम हिंदू धर्म में सर्वोच्च स्थान पर है। वे श्री राम के परम भक्त हैं और उनकी निष्ठा और समर्पण का प्रतीक हैं। हनुमान जी को उनके विभिन्न नामों से जाना जाता है, जैसे आंजनेय, मारुतिनंदन और केसरीनंदन। हनुमान जी का जन्म हनुमान जी का जन्म त्रेता युग के अंतिम चरण में चैत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्र नक्षत्र और मेष लग्न में हरियाणा राज्य के कैथल जिले में हुआ था, जिसे पूर्व में कपिस्थल कहा जाता था। माता अंजनी और वानरों के राजा केसरी के पुत्र होने के कारण वे आंजनेय और केसरीनंदन के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वायु देव के आशीर्वाद से जन्म लेने के कारण उन्हें मारुतिनंदन भी कहा जाता है। राम भक्त हनुमान हनुमान जी की गाथाओं में सबसे महत्वपूर्ण घटना श्री राम के साथ उनकी भक्ति और सेवा की है। उन्होंने ही राजा सुग्रीव से राम की मित्रता कराई, जिससे जानकी से राम का पुनर्मिलन संभव हो सका। उनकी निस्वार्थ सेवा और अडिग विश्वास ने उन्हें रामायण के नायक के रूप में स्थापित किया। देवी काली और हनुमान कृतिवासी रामायण में हनुमान का संबंध देवी काली से भी माना जाता है। इसके अनुसार, देवी काली ने हनुमान को द्वारपाल होने का आशीर्वाद दिया। इसलिए, देवी मंदिरों के प्रवेश द्वार पर भैरव और हनुमान विराजित होते हैं। हनुमान और शिव पुराण शिव पुराण के दक्षिण भारतीय संस्करण में, हनुमान को शिव और मोहिनी (विष्णु का स्त्री अवतार) के पुत्र के रूप में वर्णित किया गया है। कुछ मान्यताओं में, उनकी पौराणिक कथाओं को स्वामी अय्यप्पा के साथ जोड़ा या विलय कर दिया गया है, जो दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में लोकप्रिय हैं। आत्मविश्वास के लिए हनुमान जी की उपासना यदि किसी व्यक्ति को आत्मविश्वास की कमी महसूस होती है, या दूसरों के सामने अपनी बात कहने में कठिनाई होती है, तो उसे प्रत्येक मंगलवार को आंजनेय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। यह स्तोत्र आत्मविश्वास बढ़ाने और साहस देने में सहायक होता है। हनुमान जी की पूजा का महत्व हनुमान जी की पूजा करने से व्यक्ति को साहस, शक्ति और निष्ठा की प्राप्ति होती है। उनकी भक्ति से व्यक्ति के जीवन में आने वाली सभी कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति मिलती है। हनुमान जी चिरंजीवी हैं, अर्थात वे आज भी पृथ्वी लोक में निवास करते हैं और अपने भक्तों की सहायता के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। हनुमान जी की भक्ति और पूजा से जीवन में सकारात्मकता और उत्साह का संचार होता है। उनकी निस्वार्थ सेवा और अडिग विश्वास हमें प्रेरणा देते हैं कि हम भी अपने जीवन में कठिनाइयों का सामना धैर्य और साहस के साथ करें। जय हनुमान! श्री राम दूत आंजनेय स्तोत्रम् (रं रं रं रक्तवर्णम्) रं रं रं रक्तवर्णं दिनकरवदनं तीक्ष्णदंष्ट्राकरालंरं रं रं रम्यतेजं गिरिचलनकरं कीर्तिपंचादि वक्त्रम् । रं रं रं राजयोगं सकलशुभनिधिं सप्तभेतालभेद्यंरं रं रं राक्षसांतं सकलदिशयशं रामदूतं नमामि ॥ 1 ॥ खं खं खं खड्गहस्तं विषज्वरहरणं वेदवेदांगदीपंखं खं खं खड्गरूपं त्रिभुवननिलयं देवतासुप्रकाशम् । खं खं खं कल्पवृक्षं मणिमयमकुटं माय मायास्वरूपंखं खं खं कालचक्रं सकलदिशयशं रामदूतं नमामि ॥ 2 ॥ इं इं इं इंद्रवंद्यं जलनिधिकलनं सौम्यसाम्राज्यलाभंइं इं इं सिद्धियोगं नतजनसदयं आर्यपूज्यार्चितांगम् । इं इं इं सिंहनादं अमृतकरतलं आदिअंत्यप्रकाशंइं इं इं चित्स्वरूपं सकलदिशयशं रामदूतं नमामि ॥ 3 ॥ सं सं सं साक्षिभूतं विकसितवदनं पिंगलाक्षं सुरक्षंसं सं सं सत्यगीतं सकलमुनिनुतं शास्त्रसंपत्करीयम् । सं सं सामवेदं निपुण सुललितं नित्यतत्त्वस्वरूपंसं सं सं सावधानं सकलदिशयशं रामदूतं नमामि ॥ 4 ॥ हं हं हं हंसरूपं स्फुटविकटमुखं सूक्ष्मसूक्ष्मावतारंहं हं हं अंतरात्मं रविशशिनयनं रम्यगंभीरभीमम् । हं हं हं अट्टहासं सुरवरनिलयं ऊर्ध्वरोमं करालंहं हं हं हंसहंसं सकलदिशयशं रामदूतं नमामि ॥ 5 ॥ इति श्री रामदूत स्तोत्रम् ॥

  • संकटमोचन हनुमान अष्टक के पाठ से करें आध्यात्मिक विकास

    वाराणसी में संकटमोचन का मंदिर है। यह मंदिर करीब चार सौ वर्ष पुराना है। कहा जाता है कि तुलसीदास जी ने यहीं पर संकटमोचन हनुमानाष्टक की रचना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि यहीं पर तुलसीदास जी को पहली बार हनुमान जी का स्वप्न आया था। वृद्धावस्था में संत तुलसी दास जी को भुजाओं (बाहु) में असहनीय पीड़ा होने लगी थी, अतः उन्होंने हनुमान जी से अपनी पीड़ा की मुक्ति के लिए विनती की, तदन्तर हनुमान अष्टक और हनुमान बाहुक की रचना की थी। वैदिक ज्योतिष के अनुसार हनुमान मनुष्यों को शनि और मंगल ग्रह के दुष्प्रभावों से बचाते हैं। शनि के प्रकोप से मुक्ति के लिए लोग संकट मोचन मंदिर अवश्य आते हैं। हनुमान अष्टक का पाठ करने के लिए आप हनुमान जी की एक तस्वीर रखें। साथ ही श्री राम की तस्वीर को भी उसके साथ रखकर घी का दीपक जलाएं और साथ में तांबे के गिलास में पानी भरकर भी रख दें और तुलसी दल अर्पित करें। इसके बाद प्रेम भाव से हनुमान अष्टक का पाठ करें। पाठ समाप्त होने के पश्चात् तांबे के बर्तन में रखा हुआ जल और तुलसी पत्र जिस किसी के हित के लिए भी यह पाठ किया गया हो उसे पिला दें। हम प्रतिदिन भी हनुमान अष्टक का पाठ कर सकते हैं।   गोस्वामी तुलसीदास कृत संकटमोचन हनुमानाष्टक मत्तगयन्द छन्द बाल समय रबि भक्षि लियो तब, तीनहुँ लोक भयो अँधियारो । ताहि सों त्रास भयो जग को, यह संकट काहु सों जात न टारो ॥ देवन आन करि बिनती तब, छाँड़ि दियो रबि कष्ट निवारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 1 ॥   बालि की त्रास कपीस बसै गिरि, जात महाप्रभु पंथ निहारो । चौंकि महा मुनि शाप दिया तब, चाहिय कौन बिचार बिचारो ॥ के द्विज रूप लिवाय महाप्रभु, सो तुम दास के शोक निवारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 2 ॥   अंगद के संग लेन गये सिय, खोज कपीस यह बैन उचारो । जीवत ना बचिहौ हम सो जु, बिना सुधि लाय इहाँ पगु धारो ॥ हेरि थके तट सिंधु सबै तब, लाय सिया-सुधि प्राण उबारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 3 ॥   रावन त्रास दई सिय को सब, राक्षसि सों कहि शोक निवारो । ताहि समय हनुमान महाप्रभु, जाय महा रजनीचर मारो ॥ चाहत सीय अशोक सों आगि सु, दै प्रभु मुद्रिका शोक निवारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 4 ॥   बाण लग्यो उर लछिमन के तब, प्राण तजे सुत रावण मारो । लै गृह बैद्य सुषेन समेत, तबै गिरि द्रोण सु बीर उपारो ॥ आनि सजीवन हाथ दई तब, लछिमन के तुम प्राण उबारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 5 ॥   रावण युद्ध अजान कियो तब, नाग कि फाँस सबै सिर डारो । श्रीरघुनाथ समेत सबै दल, मोह भयो यह संकट भारो ॥ आनि खगेस तबै हनुमान जु, बंधन काटि सुत्रास निवारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 6 ॥   बंधु समेत जबै अहिरावन, लै रघुनाथ पाताल सिधारो । देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि, देउ सबै मिति मंत्र बिचारो ॥ जाय सहाय भयो तब ही, अहिरावण सैन्य समेत सँहारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 7 ॥   काज किये बड़ देवन के तुम, वीर महाप्रभु देखि बिचारो । कौन सो संकट मोर गरीब को, जो तुमसों नहिं जात है टारो ॥ बेगि हरो हनुमान महाप्रभु, जो कछु संकट होय हमारो । को नहिं जानत है जग में कपि, संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 8 ॥   ॥ दोहा ॥ लाल देह लाली लसे, अरू धरि लाल लंगूर । बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर ॥   ॥ इति संकटमोचन हनुमानाष्टक सम्पूर्ण ॥ हिंदी अनुवाद — हे बजरंगबलि हनुमान जी ! बचपन में आपने सूर्य को लाल फल समझकर निगल लिया था, जिससे तीनों लोकों में अंधेरा हो गया था। इससे सारे संसार में घोर विपत्ति छा गई थी । लेकिन इस संकट को कोई भी दूर न कर सका। जब सभी देवताओं ने आकर आपसे विनती की तब आपने सूर्य को अपने मुंह से बाहर निकाला और इस प्रकार सारे संसार का कष्ट दूर हुआ। हे वानर-रूपी हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आप हीं को सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है। अपने बड़े भाई बालि के डर से महाराज सुग्रीव किष्किंधा पर्वत पर रहते थें । जब महाप्रभु श्री राम लक्ष्मण के साथ वहाँ से जा रहे थे तब सुग्रीव ने आपको उनका पता लगाने के लिये भेजा। आपने ब्राह्मण का भेष बनाकर भगवान श्री राम से भेंट की और उनको अपने साथ ले आए, जिससे आपने महाराज सुग्रीव को कष्टों से बाहर निकाल कर उनका दुख दूर किया। हे बजरंगबली, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको हीं सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है। सुग्रीव ने सीता माता की खोज के लिये अंगद के साथ वानरों को भेजते समय यह कह दिया था की यदि सीता माता का पता लगाए बिना यहाँ लौटे तो सबको मार दिया जाएगा। सब ढूँढ-ढूँढ कर निराश हो गये तब आप विशाल सागर को लाँघकर लंका गये और सीताजी का पता लगाया, जिससे सब के प्राण बच गये। हे बजरंगबली, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको हीं सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है। अशोक वाटिका मे रावण ने सीताजी को कष्ट दिया, भय दिखाया और सभी राक्षसियों से कहा कि वे सीताजी को मनाएं, तब उसी समय आपने वहाँ पहुँचकर राक्षसों को मारा। जब सीता माता ने स्वयं को जलाकर भस्म करने के लिए अशोक वृक्ष से अग्नि कि विनती की, तभी आपने अशोक वृक्ष के ऊपर से भगवान श्रीराम की अंगूठी उनकी गोद में डाल दी जिससे सीता मैया शोक मुक्त हो गई। हे बजरंगबली, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है। लक्ष्मण की छाती में बाण मारकर जब मेघनाथ ने उन्हें मूर्छित कर दिया। उनके प्राण संकट में पड़ गये। तब आप वैद्य सुषेण को घर सहित उठा लाये और द्रोण पर्वत सहित संजीवनी बूटी लेकर आए जिससे लक्ष्मण जी के प्राणों की रक्षा हुई। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।   रावण ने भीषण युद्ध करते हुए भगवान श्रीराम और लक्ष्मण सहित सभी योद्धाओं को नाग पाश में जकड़ लिया। तब श्री राम सहित समस्त वानर सेना संकट मे घिर गई, तब आपने ही गरुड़देव को लाकर सभी को नागपाश से मुक्त कराया। हे महावीर हनुमान जी, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको हीं सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है। जब अहिरावण श्री राम और लक्ष्मण को उठाकर अपने साथ पाताल लोक में ले गया, उसने भली-भांति देवी की पूजा कर सबसे सलाह करके यह निश्चय किया की इन दोनों भाइयों की बलि दूँगा, उसी समय आपने वहाँ पहुँचकर भगवान श्रीराम की सहायता करके अहिरावण का उसकी सेना सहित संहार कर दिया। हे बजरंगबली हनुमान जी, इस संसार में ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको हीं सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है। हे वीरों के वीर महाप्रभु आपने देवताओं के तो बड़े-बड़े कार्य किये हैं । अब आप मेरी तरफ देखिए और विचार कीजिए कि मुझ गरीब पर ऐसा कौन सा संकट आ गया है जिसका निवारण आप नहीं कर सकते। हे महाप्रभु हनुमान जी, मेरे ऊपर जो भी संकट आया है उसे कृपा कर दूर करें । हे बजरंगबली, इस संसार मे ऐसा कौन है जो यह नहीं जानता है की आपको ही सभी संकटों का नाश करने वाला कहा जाता है।

  • सभी देवता के गायत्री मंत्र

    गायत्री मंत्र न केवल एक प्राचीन वेद मंत्र है, बल्कि यह आत्मा की शुद्धि, बुद्धि की प्रखरता और जीवन की समृद्धि के लिए एक महत्वपूर्ण साधना भी है। इसके नियमित जाप से व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा, मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति का संचार होता है। गायत्री मंत्र का विस्तार सर्व प्राचीन ऋग्वेद से लिया गया है। ऋग्वेद की रचना आज से 2500-3500 वर्ष पूर्व हुई थी। इस मंत्र के दृष्टा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र हैं। 'ॐ भूर्भुवः स्वः' यह मंत्र यजुर्वेद से लिया गया है और इसे महाव्याहृति के रूप में जाना जाता है। यह एक महान आध्यात्मिक कथन है जिसका प्रयोग कई अन्य मंत्रों से पूर्व किया जाता है। गायत्री मंत्र का अर्थ है पृथ्वी, स्वर्ग और उससे आगे के सभी लोकों से अपने आप को जोड़ना और उस परम ऊर्जा को अपने भीतर समाहित करना। 'तत्' का तात्पर्य है 'वह', जो अवर्णनीय और अतुलनीय है। 'सवितुर्' का अर्थ है सूर्य, सविता, ज्ञान या विवेक, जो सभी को प्रेरित करता है और सभी का प्राण तत्व है। यह एक दिव्य प्रकाश है जो सबका सार तत्व है। 'वरेण्यम' का अर्थ है 'आराधना करना', अर्थात् हम उस ब्रह्मांड या उससे भी परे की दिव्यता को प्रणाम करते हैं। अगली पंक्ति 'भर्गो देवस्य धीमहि' का अर्थ है उस दिव्यता का निरंतर चिंतन करना और उसकी ध्वनि में ध्वनित होते रहना। अंतिम पंक्ति 'धियो यो नः प्रचोदयात्' का अर्थ है कि हम उसकी दिव्य बुद्धि, परम प्रकाश या परम ज्ञान का ध्यान करते हैं और सदैव उसी में निवास करते हैं। ॐ भूर्भुवः स्वः (तैत्तिरीय आरण्यक, यजुर्वेद) तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् (ऋग्वेद 3/62/10) गायत्री मंत्र जाप कब करें— 1. सूर्योदय से पूर्व 2. दोपहर में 3. सूर्यास्त से पूर्व गायत्री मंत्र जाप से लाभ— 1. मन की शांति और एकाग्रता के लिए गायत्री मंत्र का जाप करना कहिए। 2. गायत्री मंत्रों के जाप से दुःख, कष्ट, दरिद्रता और पाप दूर होते हैं। 3. संतान प्राप्ति के लिए भी गायत्री मंत्र का जाप किया जाता है। 4. कार्यों में सफलता, करियर में उन्नति आदि के लिए भी गायत्री मंत्र का जाप करना श्रेयस्कर है। 5. विरोधियों या शत्रुओं में अपना वर्चस्व स्थापित करने के​ लिए घी एवं नारियल के बुरा का हवन करें और गायत्री मंत्र का जाप करते रहें। 6. स्मरण शक्ति के विकास के लिए गायत्री मंत्र का जाप प्रतिदिन करना चाहिए। सभी देवता के गायत्री मंत्र अब हम सभी देवता के गायत्री मंत्र देखेंगे। शिव गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ महादे॒वाय॑ धीमहि । तन्नो॑ रुद्रः प्रचो॒दया᳚त् ॥ शिव गायत्री मंत्र का जाप करने से सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ती होती है। इस मंत्र का जाप करने से पाप का नाश होता है, मानसिक शांति मिलती है और व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। पूजा में इस मंत्र का जाप करने से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं। पितृदोष, कालसर्प दोष, राहु-केतु तथा शनि दोष की शांति के लिए शिव गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए। गणपति गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ वक्रतु॒ण्डाय॑ धीमहि । तन्नो॑ दन्तिः प्रचो॒दया᳚त् ॥ गणपती गायत्री मंत्र का जप प्रतिदिन किया जाए, तो सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और सफलता और सुख समृद्धि आती है। इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है. धर्म शास्त्र में इस मंत्र का प्रयोग हर सफलता के लिए सिद्ध माना गया है। यह मंत्र रोग और शत्रुओं पर विजय दिलाता है. नन्दि गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ चक्रतु॒ण्डाय॑ धीमहि । तन्नो॑ नन्दिः प्रचो॒दया᳚त् ॥ पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी जी को भगवान शिव की सभी शक्तियां प्राप्त है। इस वजह से भगवान शिव के आशीर्वाद के लिए नंदी जी का प्रसन्न होना बहुत ही आवश्यक है। नंदी गायत्री मंत्र का प्रतिदिन जाप करने से मनुष्य ज्ञान और बुद्धि में श्रेष्ठ हो जाता है। यह मंत्र शारीरिक कष्टों से मुक्ति दिलाता है। सुब्रह्मण्य गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ महासे॒नाय॑ धीमहि । तन्नः षण्मुखः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के नरन्तर जाप से सभी प्रकार के शत्रुओं का नाश होता है। गरुड गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ सुवर्णप॒क्षाय॑ धीमहि । तन्नो॑ गरुडः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के जाप से सर्पों का भय समाप्त हो जाता है। काला जादू या नकारात्मक शक्तियों से रक्षा होती है। कुंडली में राहू, केतु के दोष और कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है। ब्रह्म गायत्री मन्त्रः ॐ-वेँ॒दा॒त्म॒नाय॑ वि॒द्महे॑ हिरण्यग॒र्भाय॑ धीमहि । तन्नो॑ ब्रह्मः प्रचो॒दया᳚त् ॥ ब्रह्म गायत्री मंत्र की का जाप करने से यश, धन, संपत्ति आदि की प्राप्ति होती है। यह मंत्र चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करने वाला है। यह मंत्र मृत्यु के पश्चात ब्रह्मलोक का मार्ग प्रशस्त करता है। विष्णु गायत्री मन्त्रः ॐ ना॒रा॒य॒णाय॑ वि॒द्महे॑ वासुदे॒वाय॑ धीमहि । तन्नो॑ विष्णुः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के जाप से पारिवारिक कलह से मुक्ति और सुख और समृद्धि प्राप्त होती है। श्री लक्ष्मि गायत्री मन्त्रः ॐ म॒हा॒दे॒व्यै च वि॒द्महे॑ विष्णुप॒त्नी च॑ धीमहि । तन्नो॑ लक्ष्मी प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र का जाप करने से माता लक्ष्मी की असीम कृपा बरसती है। माना जाता है कि रोजाना कमलगट्टे की माला से महालक्ष्मी गायत्री मंत्र का जाप करने से कर्ज से मुक्ति मिल जाती है और देवी लक्ष्मी की कृपा उनके भक्तों पर बनी रहती है। नरसिंह गायत्री मन्त्रः ॐ-वँ॒ज्र॒न॒खाय वि॒द्महे॑ तीक्ष्णद॒ग्ग्-ष्ट्राय॑ धीमहि । तन्नो॑ नरसिग्ंहः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के जाप से तांत्रिक मंत्र, बाधा, भूत, पिशाच और अकाल मृत्यु के भय से छुटकारा मिलता है। इन मंत्र का जाप करने से सभी दुःख दूर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त मंत्र का जाप करते समय नरसिंह देवता को एक मोर पंख अर्पित करना चाहिए। इससे कालसर्प दोष दूर होता है और धन में वृद्धि होती है। सूर्य गायत्री मन्त्रः ॐ भा॒स्क॒राय॑ वि॒द्महे॑ महद्द्युतिक॒राय॑ धीमहि । तन्नो॑ आदित्यः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र का जाप करने से जगत में यश और सम्मान की प्राप्ति होती है। कुंडली में यदि सूर्य दुर्बल हो तो इस मंत्र का जाप करना चहिए, इससे आत्मबल की वृद्धि होती है, और नेत्र विकार भी दूर होते हैं। अग्नि गायत्री मन्त्रः ॐ-वैँ॒श्वा॒न॒राय॑ वि॒द्महे॑ लाली॒लाय धीमहि । तन्नो॑ अग्निः प्रचो॒दया᳚त् ॥ अग्नि को इंद्र का जुड़वा भाई कहा जाता है। वह इंद्र के ही समान बलशाली और शक्तिशाली हैं। वेदों में अग्नि को वैश्वानर अग्नि (विश्व को कार्य में संलग्न रखने वाली ऊर्जा) के रूप में प्रार्थना की गई है। पुराणों में अग्नि की पत्नी का नाम स्वाहा बताया गया है और इनके तीन पुत्र– पावक, पवमान और शुचि हैं। अग्नि ही हवन में अर्पित समिधा को देवताओं तक पहुंचाती है। अग्नि गायत्री मंत्र से आप के अंदर ऊर्जा का विकास होगा। दुर्गा गायत्री मन्त्रः ॐ का॒त्या॒य॒नाय॑ वि॒द्महे॑ कन्यकु॒मारि॑ धीमहि । तन्नो॑ दुर्गिः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र का जाप उन लोगों के लिए अच्छा है जो किसी भी प्रकार के भय से मुक्त होना चाहते हैं। इस मंत्र से आत्मविश्वास की वृद्धिहोती है। दुर्गा गायत्री मंत्र बुद्धि और शांति के साथ-साथ समृद्धि और सौभाग्य भी लाता है। नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करने से जीवन की परेशानियां और मानसिक समस्याएं दूर होती हैं।

  • ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते ईशावास्योपनिषद से लिया गया शांति पाठ-हिन्दी अनुवाद

    इस शांति पाठ का उच्चारण साधना, पूजा या ध्यान के प्रारंभ और समापन पर किया जाता है, जिससे मन को शांति, संतुलन और पूर्णता की भावना प्राप्त होती है। यह मंत्र हमें यह समझने में मदद करता है कि सम्पूर्णता और शांति हमारे भीतर ही विद्यमान हैं और हम सभी को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। यह शांति पाठ ईशावास्योपनिषद से लिया गया है और इसका गहरा आध्यात्मिक महत्व है। इस मंत्र का अर्थ है कि यह (संसार) पूर्ण है, वह (ब्रह्म) पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है। जब पूर्ण से पूर्ण को निकाल लिया जाता है,तब भी पूर्ण ही शेष रहता है। यह मंत्र हमें इस सृष्टि की सम्पूर्णता और अखंडता का बोध कराता है, जिसमें हर वस्तु और हर स्थिति अपने आप में संपूर्ण है। ईशावास्योपनिषद के इस शांति पाठ का नियमित जाप व्यक्ति के जीवन में मानसिक शांति और आध्यात्मिक संतुलन लाता है। यह मंत्र हमें आत्मिक पूर्णता का एहसास कराता है और हमारे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते । पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॥ ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ ॐ। वह ब्रह्म अनंत है, और उससे उत्पन्न यह ब्रह्मांड भी अनंत है। उस अनंत से ही अनंत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। उस अनन्त की अन्नतता के रहते हुए अंत में अनंत ही शेष रहता है। अर्थात् इस अन्नतता का कभी नाश नहीं होता। इसी से सब उत्पन्न हैं इसके पश्चात भी यह पूर्ण हैं, यहां अभाव का कभी कोई स्थान नहीं है। पूर्णता से पूर्ण ही उत्पन्न होता है और महाप्रलय में उसी पूर्णता में सब समाहित हो जाता है। ओम! शांति! शांति! शांति! ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते । पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॥ ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ ॐ ई॒शा वा॒स्य॑मि॒दग्ं सर्वं॒-यँत्किञ्च॒ जग॑त्वां॒ जग॑त् । तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑स्वि॒द्धनम्᳚ ॥ 1 ॥ कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा᳚णि जिजीवि॒षेच्च॒तग्ं समाः᳚ । ए॒वं त्वयि॒ नान्यथे॒तो᳚ऽस्ति॒ न कर्म॑ लिप्यते॑ नरे᳚ ॥ 2 ॥ अ॒सु॒र्या॒ नाम॒ ते लो॒का अ॒न्धेन॒ तम॒साऽऽवृ॑ताः । ताग्ंस्ते प्रेत्या॒भिग॑च्छन्ति॒ ये के चा᳚त्म॒हनो॒ जनाः᳚ ॥ 3 ॥ अने᳚ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी᳚यो॒ नैन॑द्दे॒वा आ᳚प्नुव॒न्पूर्व॒मर्​ष॑त् । तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये᳚ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मिन्᳚न॒पो मा᳚त॒रिश्वा᳚ दधाति ॥ 4 ॥ तदे᳚जति॒ तन्नेज॑ति॒ तद्दू॒रे तद्व॑न्ति॒के । तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः ॥ 5 ॥ यस्तु सर्वा᳚णि भू॒तान्या॒त्मन्ये॒वानु॒पश्य॑ति । स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न विहु॑गुप्सते ॥ 6 ॥ यस्मि॒न्सर्वा᳚णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू᳚द्विजान॒तः । तत्र॒ को मोहः॒ कः शोकः॑ एक॒त्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥ 7 ॥ स पर्य॑गाच्चु॒क्रम॑का॒यम॑प्रण॒म॑स्नावि॒रग्ं शु॒द्धमपा᳚पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भू-र्या᳚थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्य॑दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा᳚भ्यः ॥ 8 ॥ अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते । ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॑ वि॒द्याया᳚ग्ं र॒ताः ॥ 9 ॥ अ॒न्यदे॒वायुरि॒द्यया॒ऽन्यदा᳚हु॒रवि॑द्यया । इति॑ शुशुम॒ धीरा᳚णां॒-येँ न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥ 10 ॥ वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ग्ं स॒ह । अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्ययाऽमृत॑मश्नुते ॥ 11 ॥ अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ येऽसम्᳚भूतिमु॒पास॑ते । ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॒ सम्भू᳚त्याग्ं र॒ताः ॥ 12 ॥ अ॒न्यदे॒वाहुः सम्᳚भ॒वाद॒न्यदा᳚हु॒रसम्᳚भवात् । इति॑ शुश्रुम॒ धीरा᳚णां॒-येँ न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥ 13 ॥ सम्भू᳚तिं च विणा॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ग्ं स॒ह । वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं ती॒र्त्वा सम्भू᳚त्या॒ऽमृत॑मश्नुते ॥ 14 ॥ हि॒र॒ण्मये᳚न॒ पात्रे᳚ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्᳚ । तत्वं पू᳚ष॒न्नपावृ॑णु स॒त्यध᳚र्माय दृ॒ष्टये᳚ ॥ 15 ॥ पूष॑न्नेकर्​षे यम सूर्य॒ प्राजा᳚पत्य॒ व्यू᳚ह र॒श्मीन् समू᳚ह॒ तेजो॒ यत्ते᳚ रू॒पं कल्या᳚णतमं॒ तत्ते᳚ पश्यामि । यो॒ऽसाव॒सौ पुरु॑षः॒ सो॒ऽहम॑स्मि ॥ 16 ॥ वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथेदं भस्मा᳚न्त॒ग्ं॒ शरी॑रम् । ॐ 3 क्रतो॒ स्मर॑ कृ॒तग्ं स्म॑र॒ क्रतो॒ स्मर॑ कृ॒तग्ं स्म॑र ॥ 17 ॥ अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा᳚ रा॒ये अ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒यना॑नि वि॒द्वान् । यु॒यो॒ध्य॒स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्टां ते॒ नम॑उक्तिं-विँधेम ॥ 18 ॥ ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते । पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ -- ईशावास्योपनिषद् (ईशोपनिषद्) ॥ईशावास्योपनिषद: हिंदी अनुवाद॥ १. जगत में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादित है (अर्थात उसे भगवत स्वरूप अनुभव करना चाहिये)। तुम्हें अपने कर्म का पालन त्याग भाव से करना चाहिए, स्वयं को कर्ता नहीं समझना चाहिए। किसी पराई वस्तु या धन पर स्वामित्व का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। २. अर्थात् , इस भाव से कि सब कुछ ईश्वर ही है उससे भिन्न कुछ भी नहीं - अच्छा हो या बुरा सब ईश्वर का ही है, इस भाव से प्रसन्न रहते हुए तुम सौ वर्षों तक जियो। जो मनुष्य अभिमान न रखते हुए कर्म से निर्लिप्त रहेगा, उसे फल या उसके परिणामों को नहीं भोगना पड़ेगा। ३.असुर सम्बंधित लोक आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित है। अर्थात् वह लोग जो ईश्वर तत्व में विश्वास नहीं करते वहअज्ञान रूपी घोर अन्धकार से व्याप्त हैं। ऐसे लोग आत्मा का हनन करते हैं मृत्यु के पश्चात् वे उसी अन्धकार को प्राप्त होते हैं। ४. वह परमात्वतत्व अपने स्वरूप से विचलित न होने वाला एक है। वह मन से भी तेज गति वाला है, वह इन्द्रिया से प्राप्त होने वाला नहीं है, क्योंकि यह उन सबसे पहले (आगे) गया हुआ (विद्यमान ) है। यह स्थिर होने पर भी अन्य सब गतिशिलों का अतिक्रमण कर जाता है। उसके रहते हुए अर्थात् उसी में, उसी की सत्ता में ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृतिरुप कर्मों का विभाग करता है॥ ५. वह परमात्वतत्व गतिमान भी है और नहीं भी, वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अन्दर है और सबके बाहर भी है॥ ६. जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतो में भी आत्मा को ही देखता है वह इस (सर्वात्म दर्शन) के कारण ही किसी से घृणा नहीं करता॥ ७. जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मतत्व हो गये उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान् को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ? ८. वह परमात्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू (स्वयं ही होने वाला) है। उसी ने नित्यसिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीती से अर्थों (कर्तव्यों अथवा पदार्थो) का विभाग किया है॥ ९. जो अविद्या की ही उपासना करते हैं अर्थात् जो इस माया जगत को सत्य मानते हैं वह (अविद्यारूप) घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो इसी अविद्या रूप उपासना में ही रत रहते है वे मानो उससे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं॥ १०. विद्या (देवताज्ञान) से और ही फल बताया गया है तथा अविद्या (कर्म) से और ही फल बताया गया है। अर्थात् दोनों के कर्मफल भिन्न हैं। ऐसा बुद्धिमान पुरूषों के द्वारा सुना गया है, जिन्होंने इस परम ज्ञान की व्याख्या की थी॥ ११. जो विद्या और अविद्या-को एक ही साथ जनता है अर्थात् जो दोनों को उस परमतत्व का ही अंग मानता है। वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है॥ अर्थात् वह उस परमतत्व में लीन हो जाता है। १२. जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति) की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्य ब्रह्मा) में रत हैं वे मानो उससे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते है॥ १३. कार्यब्रह्म की उपासना से और ही फल बताया गया है ; तथा अव्यक्तोपासना से और ही फल बताया गया है। ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी॥ १४. जो असम्भूति और कार्यब्रह्म है – इन दोनों को साथ साथ जानता है, अर्थात् दोनों को एक ही समझता है, वह कार्यब्रम्हा की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा (प्रकृतिलयरुप) अमरत्व को प्राप्त हो जाता है॥ १५. आदित्यमंडलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन ! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे प्रकट कर दे, दृश्यमान बना दे॥ १६. हे जगत पोषक सूर्य ! हे एकाकी गमन करने वाले ! हे यम (संसार नियमन बनाने वाले) ! हे सूर्य (प्राण और रस का शोषण करने वाले) ! हे प्रजापति नंदन ! तू अपनी किरणों को हटा ले (अपने तेज को समेट ले)। तेरा जो अतिशय कल्याणमय रूप है उसे मैं देखता हूँ। यह जो आदित्यमंडलस्थ पुरुष है वह मैं ही हूँ॥ १७. अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायुरूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्म ही शेष रह जाये। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए संकल्प को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए संकल्प को स्मरण कर॥ १८. हे अग्ने ! हमें कर्म फल भोग के लिए सन्मार्ग पर ले चल।हे देव ! तू समस्त ज्ञान और कर्मो को जानने वाला है। हमारे संपूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार करते हैं॥

  • माता छिन्नमस्ता —ग्रह दोष और शत्रु का नाश करती हैं

    वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को छिन्नमस्ता जयंती मनाई जाती है। महाविद्या पंथ में दस देवी कही जाती हैं—काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमला। छिन्नमस्ता का अर्थ है, कटे हुए सिर वाली देवी। यह देवी खंड योग को दर्शाती हैं। जिसमें वह अपना ही सर काट कर अपने हाथ में पकड़ लेती हैं। यह देवी शक्ति, दिव्य स्त्री-ऊर्जा के उग्र स्वरुप का रूप है। देवी के स्वरुप पर दृष्टि डालें तो उनके एक हाथ में अपना खुद का मस्तक है और दूसरे हाथ में खडग धारण कर रखा है। माता तीन नेत्रों से शोभित हैं। और वह शयन करते हुए राति और कामदेव पर विराजमान हैं। वह मुंडमाला और सर्प माला से सुशोभित हैं। उनके केश खुले हुए हैं। इनके गले से रक्त की तीन धाराएं बह रही हैं। दो धार उनकी सहेलियाँ डाकिनी और शाकिनी के मुख पर जा रही है और तीसरी धार का वह स्वयं पान कर रही हैं। छिन्नमस्ता महादेवी का बीजाक्षर मंत्र ' हूं' है। हूं बीज मंत्र अपने आप में शिव और शक्ति का स्वरूप है। इस मंत्र के जाप का एक मात्र उद्देश्य शत्रुओं का नाश है। 'हूं' 'हकारम्' और 'ऊंकारम्' का योग है। 'हकारम' शक्ति बीज मंत्र है जिसका तात्पर्य स्थिर ज्ञान से है, 'ओम' शिव बीज मंत्र है जो आध्यात्मिक उन्नति देता है। इस बीजाक्षर मंत्र का जाप जोर से करने से आपके घर की सारी नकारात्मक शक्तियां का नाश हो जाए गा। इस मंत्र का जाप करने से ज्ञान, शत्रु विनाश और शिव की कृपा प्राप्त होती है। सायं में संध्या काल में माता की पूजा करनी चाहिए। छिन्नमस्ता माता को महाविद्या में प्रचण्ड चण्ड के नाम से पूजा जाता है। जो आदिपराशक्ति का स्वरुप हैं और नव चंडियों में से एक हैं। उनके अन्य नाम इंद्राणी, वज्रवैरोचनी और चंदा प्रचंडी देवी हैं। उनकी अष्ट शक्तियाँ हैं— ढाकिनी, वर्णिनी, एका लिंग, महाभैरवी, भैरवी, इंद्राणी, अष्टांगी और संहारिणी। यह शत्रु नाश की मुख्य देवी हैं। कहा जाता है कि भगवान परशुराम ने चिन्नमस्ता देवी की पूजा करके अपार बल अर्जित किया था। देवी की अराधना से आयु, आकर्षण, धन और कुशाग्र बुद्धि प्राप्त होती है। पुराणों के अनुसार यह देवी प्राणतोषिनी हैं। इनका शुद्ध हृदय से विधिवत पूजन करने वाला व्यक्ति रोग और शत्रुओं से मुक्त हो जाता है। माता छिन्नमस्ता —ग्रह दोष और शत्रु का नाश करती हैं-- शाम के समय प्रदोषकाल में दक्षिण-पश्चिम मुखी होकर नीले रंग के आसन पर बैठ जाएं। लकड़ी के पट्टे पर नीला वस्त्र बिछाकर उस पर छिन्नमस्ता यंत्र स्थापित करें। दाएं हाथ में जल लेकर संकल्प करें तत्पश्चात हाथ जोड़कर छिन्नमस्ता देवी का ध्यान करें। तेल में नील मिलाकर दीपक जलाएं और नीले फूल (मन्दाकिनी अथवा सदाबहार) अर्पित करें। सूरमे का तिलक लगाएं और इत्र अर्पित करें। लोबान से धूप करें। उड़द से बने मिष्ठान का भोग लगाएं। तत्पश्चात बाएं हाथ में काले नमक की डली लेकर दाएं हाथ से अष्टमुखी रुद्राक्ष माला से देवी के इस अद्भुत मंत्र का यथा संभव जाप करें। ॐ श्रीं ह्रीं ऐं वज्रवैरोचनये हूं हूं फट स्वाहा। जाप पूरा होने के बाद काले नमक की डली को बरगद के नीचे गाड़ दें। बची हुई सामग्री को जल प्रवाह कर दें। इस साधना से शत्रुओं का नाश होता है, रोजगार और नौकरी में प्रमोशन मिलती है और ग्रहदोष समाप्त होते हैं । कोर्ट-कचहरी, वाद-विवाद में निश्चित सफलता मिलती है। महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना से जीवन की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में छिन्नमस्ता देवी का मंदिर है.। यह मंदिर दूसरी सबसे बड़ी शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है। यह मंदिर रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित है। कहा जाता है, यह मंदिर 6000 साल पुराना है, कुछ लोग इसे महाभारत कालीन मानते हैं। रजरप्पा मंदिर की वास्तुकला असम के प्रसिद्ध कामख्या मंदिर के समान है। यहां माता के मंदिर के साथ भगवान सूर्य और भगवान शिव के दस मंदिर हैं।

  • चमत्कारिक फायदे: प्रदोष व्रत में शिवाष्टक का पाठ

    प्रदोष व्रत प्रत्येक माह दोनों पक्षों में त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। प्रायः ये देखा जाता है कि एकादशी को लोग विष्णु से और प्रदोष को शिव से जोड़ कर देखते हैं। कहा जाता है कि एक बार चंद्रमा क्षय रोग से ग्रसित हो गए थे, तो भगवान शिव ने त्रयोदशी तिथि को ही उन्हें रोग से मुक्त कर दिया था। तभी से इस दिन को प्रदोष कहा जाने लगा। एकादशी की तरह यह भी महीने में दो बार त्रयोदशी के दिन पड़ता है। एकादशी और त्रयोदशी दोनों का संबंध चंद्रमा से है, अतः इस दिन जो व्रत रख कर फलाहार करता है, वह कुंडली में अपने चंद्रमा को मजबूत करता है। माना जाता है कि चंद्रमा सुधारने से शुक्र भी सुधर जाता है, और शुक्र सुधरने से बुध भी अपने-आप ठीक हो जाता है। इस तरह से तीनों ग्रह शुभ फलदायी हो जाते हैं और जीवन सरल हो जाता है। इस व्रत से आप अशुभ संस्कारों को भी नष्ट कर सकते हैं। अलग-अलग दिन पड़ने वाले प्रदोष की महिमा अलग-अलग होती है, यानि सोमवार का प्रदोष, मंगल और अन्य वारों को आने वाले प्रदोष की महिमा अलग-अलग बताई गयी है। रविवार के प्रदोष को रवि-प्रदोष, सोमवार के प्रदोष को सोम-प्रदोष, मंगलवार के प्रदोष को भौम-प्रदोष, बुधवार के प्रदोष को सौम्यवारा प्रदोष, बृहस्पति वार के प्रदोष को गुरुवारा प्रदोष, शुक्रवार को भृगुवारा प्रदोष, शनि प्रदोष से पुत्र कामना की पूर्ति होती है। प्रदोष व्रत भगवान शिव को प्रसन्न कर जीवन में सुख-समृद्धि, लक्ष्मी प्राप्त करने का सुगम पाठ है। प्रदोषकाल में शिव पूजन अत्यन्त लाभदायक होता है। कहा जाता है कि रावण प्रदोष काल में शिव को प्रसन्न कर, सिद्धियां प्राप्त करता था। प्रातःकाल स्नानादि से पवित्र होकर शिव-स्मरण करते हुए निराहार रहें, सायंकाल, सूर्यास्त से एक घण्टा पूर्व, पुनः स्नान करके सुगंधि, मदार पुष्प, बिल्वपत्र, धूप-दीप तथा नैवेद्य आदि पूजन सामग्री एकत्र कर लें, पांच रंगों को मिलाकर पद्म पुष्प की प्रकृति बनाकर आसन पर उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाय और देवाधिदेव शिव का पूजन करें। पंचाक्षर मंत्र का जाप करते हुए जल चढ़ाएं और ऋतुफल अर्पित करें। जिस कामनापूर्ति हेतु व्रत किया जा रहा है, उसकी प्रार्थना भगवान शिव के समक्ष श्रद्धा-भाव से करें, शिव के साथ पार्वतीजी और नंदी का पूजन भी अवश्य करें और  शिवाष्टकम् का पाठ करें। इस स्त्रोत्र का पाठ करने से सुन्दर स्त्री, पुत्र और धन की प्राप्ति होती है। प्रदोष व्रत दोनों पक्षों की त्रयोदशी को करना चाहिए, प्रदोष व्रत अति सरल और सभी प्रकार का फल देने वाला है। स्कन्द आदि पुराणों में इस व्रत की बड़ी महिमा बताई गई है। प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव को सिंदूर, हल्दी, तुलसी, केतकी और नारियल का पानी बिल्कुल भी न चढ़ाएं। चमत्कारिक फायदे: प्रदोष व्रत में शिवाष्टक का पाठ प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् । भवद्भव्य भूतेश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 1 ॥ गले रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणेशादि पालम् । जटाजूट गङ्गोत्तरङ्गैर्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 2॥ मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम् । अनादिं ह्यपारं महा मोहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 3 ॥ वटाधो निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम् । गिरीशं गणेशं सुरेशं महेशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 4 ॥ गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदेहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गेहम् । परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 5 ॥ कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भोज नम्राय कामं ददानम् । बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 6 ॥ शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम् । अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 7 ॥ हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वेदसारं सदा निर्विकारं। श्मशाने वसन्तं मनोजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 8 ॥ स्वयं यः प्रभाते नरश्शूल पाणे पठेत् स्तोत्ररत्नं त्विहप्राप्यरत्नम् । सुपुत्रं सुधान्यं सुमित्रं कलत्रं विचित्रैस्समाराध्य मोक्षं प्रयाति ॥

  • दरिद्रता दूर करने का चमत्कारी स्तोत्र— "दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्रम्", हिंदी अनुवाद सहित

    यदि आप घोर आर्थिक संकट का सामना कर रहे हों या ऋणग्रस्त हों, व्यापार-व्यवहार में घाटा हो रहा हो तो ऐसे व्यक्तियों को दारिद्रय दहन स्तोत्र से शिवाजी की आराधना प्रतिदिन करनी चाहिए। महर्षि वशिष्ठ द्वारा रचित यह स्तोत्र बहुत ही प्रभावशाली है। यदि संकट बहुत अधिक है तो शिवमंदिर में या शिव की प्रतिमा के सामने प्रतिदिन तीन बार इसका पाठ किया जाए, तो विशेष लाभ होगा। दारिद्रय दहन स्तोत्र: आर्थिक संकट से मुक्ति का प्रभावशाली उपाय घोर आर्थिक संकट या ऋणग्रस्तता का सामना करना किसी भी व्यक्ति के लिए अत्यंत कठिन परिस्थिति होती है। व्यापार में हानि और आर्थिक समस्याएं न केवल व्यक्ति को मानसिक तनाव देती हैं, बल्कि परिवार और सामाजिक जीवन पर भी इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। ऐसे समय में, धर्म और आध्यात्मिक उपाय सहारा बन सकते हैं। महर्षि वशिष्ठ द्वारा रचित "दारिद्रय दहन स्तोत्र" एक ऐसा ही प्रभावशाली स्तोत्र है, जिसे शिवजी की आराधना के साथ प्रतिदिन पाठ करने से व्यक्ति को विशेष लाभ प्राप्त हो सकता है। दारिद्रय दहन स्तोत्र का महत्व दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्रम् का पाठ आर्थिक संकटों को दूर करने में सहायक है। यह न केवल आर्थिक संकटों को दूर करने में सहायक है, बल्कि परिवार में सुख-शांति, सभी प्रकार के पापों की शांति और पुत्र-पौत्र की प्राप्ति के लिए भी अत्यंत श्रेयस्कर है। शिवजी का ध्यान कर मन में संकल्प लेने और अपनी मनोकामनाओं को शिवजी के चरणों में समर्पित करने के पश्चात इस स्तोत्र का पाठ प्रारंभ करना चाहिए। पाठ विधि तैयारी : स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करें और एक पवित्र स्थान पर बैठें। स्थापन : शिवजी की मूर्ति या चित्र के सामने दीपक जलाएं। संकल्प : मन में शिवजी के प्रति श्रद्धा और भक्ति का संकल्प लें। पाठ : दारिद्रय दहन स्तोत्र का पाठ करें और शिवजी का ध्यान करें। आवृत्ति : यदि संकट अत्यधिक गहरा हो, तो शिवमंदिर में या शिवजी की प्रतिमा के सामने प्रतिदिन तीन बार इस स्तोत्र का पाठ करें। स्तोत्र का प्रभाव दारिद्रय दहन स्तोत्र का नियमित जप व्यक्ति के जीवन में आने वाले आर्थिक और पारिवारिक संकटों को दूर करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से: आर्थिक समस्याओं का समाधान : व्यापार में हानि और आर्थिक समस्याओं से मुक्ति मिलती है। मानसिक शांति : मानसिक तनाव कम होता है और व्यक्ति को मानसिक शांति प्राप्त होती है। परिवार में सुख-शांति : परिवार में सुख-शांति और सद्भाव बना रहता है। पापों की शांति : सभी प्रकार के पापों की शांति होती है। संतान सुख : पुत्र-पौत्र की प्राप्ति में सहायक होता है। दारिद्रय दहन स्तोत्र एक प्रभावशाली उपाय है, जो आर्थिक संकटों और पारिवारिक समस्याओं को दूर करने में सहायक है। शिवजी की आराधना के साथ इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति को जीवन में सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त होती है। महर्षि वशिष्ठ द्वारा रचित यह स्तोत्र भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने का एक अद्वितीय साधन है। इसके नियमित जप से व्यक्ति के जीवन में आने वाले सभी संकट और समस्याएं दूर हो जाती हैं, दरिद्रता दूर करने का चमत्कारी स्तोत्र है, और हमारा जीवन सफलता की ओर अग्रसर होता है। शिवजी की कृपा से " दारिद्रय दहन स्तोत्र " का पाठ करके हम अपने जीवन की सभी समस्याओं का समाधान प्राप्त कर सकते हैं और जीवन को सफल बना सकते हैं। हर हर महादेव! दरिद्रता दूर करने का चमत्कारी स्तोत्र "दारिद्र्य दहन शिव स्तोत्रम्" विश्वेश्वराय नरकार्णव तारणाय कर्णामृताय शशिशेखर धारणाय । कर्पूरकान्ति धवलय जटाधराय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ १॥ गौरीप्रियाय रजनीश कलाधराय कालान्तकाय भुजगाधिप कणकणाय । गंगाधराय गजराज विमर्धनाय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ २॥ भक्तप्रियाय भवरोग भयपहाय उग्राय दुःख भवसागर तारणाय । ज्योतिर्मयय गुणनाम सूर्यनृत्यकाय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ ३॥ चर्मम्बराय शवभस्म विलेपनाय फालेक्षणाय मणिकुण्डल मंडिताय । मञ्जीरपादयुगलाय जटाधराय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ ४॥ पञ्चाननय फणिराज विभूषणाय हेमाङ्कुशाय भुवनत्राय मण्डिताय आनन्द भूमि वरदाय तमोपयाय । दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ ५॥ भानुप्रियाय भवसागर तारणाय कालान्तकाय कमलासन पूजिताय । नेत्रत्रयाय शुभलक्षण ताकाय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ ६॥ रामप्रियाय रघुनाथ वरप्रदाय नागप्रियाय नरकार्णव तारणाय । पुण्याय पुण्यभृताय सुरार्चिताय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ ७॥ मुक्तेश्वराय फलदाय गणेश्वराय गीताप्रियाय वृषभेश्वर वाहनाय । मातङ्गचर्म वसनाय महेश्वराय दारिद्र्यदुःख दहनाय नमश्शिवाय ॥ ८॥ वसिष्ठेन कृतं स्तोत्रं सर्वरोग दंडम् । सर्वसम्पत्करं शीघ्रं पुत्रपौत्रादि वर्धनम् । त्रिसन्ध्यं यः पथेन्नित्यं स हि स्वर्ग मवाप्नुयात् ॥ ९॥ ॥ इति श्री वसिष्ठ विरचितं दारिद्र्यदहन शिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥ हिन्दी अनुवाद जो विश्व के स्वामी हैं, जो नरकरूपी संसारसागर से उद्धार करने वाले हैं, जोत से श्रवण करने में अमृत के समान नाम वाले हैं, जो अपने भाल पर चन्द्रमा को आभूषण रूप में धारण करने वाले हैं, जो कर्पूर की कांति के समान धवल वर्ण वाले जटाधारी हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो माता गौरी के अत्यंत प्रिय हैं, जो रजनीश्वर(चन्द्रमा) की कला को धारण करने वाले हैं, जो काल के भी अन्तक (यम) रूप हैं, जो नागराज को कंकणरूप में धारण करने वाले हैं, जो अपने मस्तक पर गंगा को धारण करने वाले हैं, जो गजराज का विमर्दन करने वाले हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो भक्तिप्रिय, संसाररूपी रोग एवं भय का नाश करने वाले हैं, जो संहार के समय उग्ररूपधारी हैं, जो दुर्गम भवसागर से पार कराने वाले हैं, जो ज्योतिष्स्वरूप हैं, अपने गुण और नाम के अनुसार सुन्दर नृत्य करने वाले हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो बाघ के आकर्षण को धारण करने वाले हैं, जो चिताभस्म को धारण करने वाले हैं, जो भाल में तीसरी आँख धारण करने वाले हैं, जो मणियों के कुंडल से सुशोभित हैं, जो अपने चरणों में नूपुर धारण करने वाले जटाधारी हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो पांच मुख वाले नागराज रूपी आभूषण सेतुबद्ध हैं, जो सुवर्ण के समान किरणवाले हैं, जो आनंदभूमि (काशी) को वर प्रदान करने वाले हैं, जो सृष्टि के संहार के लिए तमोगुणविष्ट होने वाले हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो सूर्य को अत्यंत प्रिय हैं, जो भवसागर से उद्धार करने वाले हैं, जो काल के लिए भी महाकालस्वरूप हैं, और जिनके लिए ब्रह्माजी की पूजा की जाती है, जो तीन नेत्रों को धारण करने वाले हैं, जो शुभ लक्षणों से युक्त हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो राम को अत्यंत प्रिय हैं, रघुनाथजी को वर देने वाले हैं, जो सर्पों के अतिप्रिय हैं, जो भवसागररूपी नरक से तारणे वाले हैं, जो पुण्यवालों में अत्यंत पुण्य वाले हैं, समस्त देवतापूजा करते हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है। जो मुक्तजनों के स्वामीस्वरूप हैं, जो चारों ओर पुरुषार्थों का फल देने वाले हैं, जो गीत प्रिय हैं और नंदी परमार वाहन है, गजचर्म को वस्त्ररूप में धारण करने वाले हैं, महेश्वर हैं, दारिद्र्य रूपी दुःख का नाश करने वाले शिव को मेरा नमन है।

  • वेद व्यास: भारतीय धर्म और दर्शन के महान ऋषि

    वेद व्यास भारतीय धर्म और दर्शन के महान ऋषि हैं। वह भारतीय संस्कृति और सभ्यता में एक महत्वपूर्ण और अद्वितीय स्थान रखते हैं। उनकी रचनाएँ और शिक्षाएँ न केवल प्राचीन भारत में, बल्कि आज भी धार्मिक और दार्शनिक चिंतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। एक ऋषि के रूप में, वेद व्यास का योगदान अत्यंत व्यापक और स्थायी है, जिसने उन्हें भारतीय धार्मिक परंपरा में अमर बना दिया है। वेद व्यास, जिन्हें कृष्ण द्वैपायन भी कहा जाता है, भारतीय महाकाव्य महाभारत के रचयिता और एक महान ऋषि माने जाते हैं। वेद व्यास का जन्म द्वापर युग में हुआ था और वे महर्षि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे। इनकी पत्नी का नाम आरुणी था और इनके पुत्र थे महान बाल योगी शुकदेव। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार महर्षि वेदव्यास स्वयं भगवान विष्णु के अवतार थे। निम्नोक्त श्लोकों से इसकी पुष्टि होती है। नमोऽस्तु ते व्यास विशालबुद्धे फुल्लारविन्दायतपत्रनेत्रः।येन त्वया भारततैलपूर्णः प्रज्ज्वालितो ज्ञानमयप्रदीपः।। अर्थात् - जिन्होंने महाभारत रूपी ज्ञान के दीप को प्रज्वलित किया ऐसे विशाल बुद्धि वाले महर्षि वेदव्यास को मेरा नमस्कार है। नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नम:।। महान वसिष्ठ-मुनि को मैं नमन करता हूँ। (वसिष्ठ के पुत्र थे 'शक्ति'; शक्ति के पुत्र पराशर, और पराशर के पुत्र व्यास वेद व्यास: भारतीय धर्म और दर्शन के महान ऋषि एक ऋषि के रूप में वेद व्यास भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण और प्रतिष्ठित स्थान रखते हैं। उनकी भूमिका और योगदान बहुआयामी और गहन हैं। वास्तव में, वेद व्यास भारतीय धर्म और दर्शन के महान ऋषि हैं। 1. वेदों का विभाजन और संकलन: वेद व्यास ने चार वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, और अथर्ववेद) का विभाजन किया और उन्हें व्यवस्थित किया। इस कारण से उन्हें वेद व्यास कहा जाता है। यह कार्य अत्यंत महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे वेदों का अध्ययन और शिक्षण सुगम हुआ। 2. महाभारत के रचयिता: वेद व्यास ने महाभारत जैसे विशाल महाकाव्य की रचना की, जो न केवल एक महान कथा है बल्कि उसमें गहन दार्शनिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षाएँ भी समाहित हैं। महाभारत के माध्यम से उन्होंने समाज को धर्म, नीति, और कर्तव्य का संदेश दिया। उन्होंने तीन वर्षों के अथक परिश्रम से महाभारत ग्रंथ की रचना की थी- त्रिभिर्वर्षे: सदोत्थायी कृष्णद्वैपायनोमुनि:। महाभारतमाख्यानं कृतवादि मुदतमम्।। आदिपर्व - (५६/५२) [4] संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद व्यास ही सर्वश्रेष्ठ कवि हुए हैं। इनके लिखे काव्य 'आर्ष काव्य' के नाम से विख्यात हैं। व्यास जी का उद्देश्य महाभारत लिख कर युद्ध का वर्णन करना नहीं, बल्कि इस भौतिक जीवन की नि:सारता को दिखाना है। उनका कथन है कि भले ही कोई पुरुष वेदांग तथा उपनिषदों को जान ले, लेकिन वह कभी विलक्षण नहीं हो सकता क्योंकि यह महाभारत एक ही साथ अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र तथा कामशास्त्र है। यो विध्याच्चतुरो वेदान् सांगोपनिषदो द्विज:। न चाख्यातमिदं विद्य्यानैव स स्यादिचक्षण:।। अर्थशास्त्रमिदं प्रोक्तं धर्मशास्त्रमिदं महत्। कामाशास्त्रमिदं प्रोक्तं व्यासेना मितु बुद्धिना।। महा. आदि अ. २: २८-८३ 3. पुराणों का रचनाकार: वेद व्यास को अठारह प्रमुख पुराणों का रचनाकार माना जाता है, जिनमें भागवत पुराण, विष्णु पुराण, शिव पुराण प्रमुख हैं। इन पुराणों ने हिंदू धर्म और दर्शन को समृद्ध किया और जनसामान्य के लिए धार्मिक और नैतिक शिक्षाओं को सुलभ बनाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्यों ने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। 4. ब्रह्मसूत्र के संकलक: वेदांत दर्शन के महत्वपूर्ण ग्रंथ ब्रह्मसूत्र को संकलित कर वेद व्यास ने अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों की व्याख्या और समन्वय किया। यह ग्रंथ आज भी वेदांत दर्शन के अध्ययन और अन्वेषण में प्रमुख स्थान रखता है। इन सूत्रों में सांख्य, वैशेषिक, जैन और बौद्ध मतों के प्रति संकेत मिलता है। गीता का भी उल्लेख होता है। 5. धर्म और नैतिकता के शिक्षक : वेद व्यास ने अपने शिष्यों और अन्य ऋषियों को धर्म और नैतिकता का उपदेश दिया। उनके शिष्य, पैल, जैमिनी, वैशम्पायन, सुमंतु मुनि, रोम हर्षण जैसे शिष्यों ने उनके शिक्षाओं को आगे बढ़ाया और समाज को आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्रदान किया। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तु मुनि को पढ़ाया। 6. उपनिषदों में योगदान: उपनिषदों की रचना में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के माध्यम से उन्होंने आत्मा, ब्रह्म, और मोक्ष के गहन दार्शनिक सिद्धांतों की व्याख्या की। महाभारत में वेद व्यास की भूमिका: वेद व्यास महाभारत के रचयिता ही नहीं, बल्कि वे इस महाकाव्य के कई महत्वपूर्ण घटनाओं के साक्षी और सलाहकार भी हैं। उन्होंने महाभारत की कथा को गणेश जी को सुनाया था, जिन्होंने इसे लिपिबद्ध किया। महाभारत में वे कई प्रमुख पात्रों के मार्गदर्शक भी रहे हैं। वेद व्यास का स्थान महाभारत में अत्यंत महत्वपूर्ण और केंद्रीय है, क्योंकि उन्होंने ही इस अद्वितीय कथा को संकलित कर संसार को प्रदान किया। वेद व्यास ने महाभारत की कथा को संकलित किया और इसे गणेश जी को सुनाया, जिन्होंने इसे लिखा। यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है जिसमें लगभग एक लाख श्लोक हैं। कुछ महत्वपूर्ण श्लोक इस प्रकार हैं। " धर्मो रक्षति रक्षितः।" "धर्म की रक्षा करने पर धर्म हमारी रक्षा करता है।" "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।" "तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल में नहीं।" "यतो धर्मस्ततो जयः" "जहाँ धर्म है, वहाँ विजय निश्चित है।" "विद्या विनयेन शोभते।" "ज्ञान विनम्रता से शोभित होता है।" "नास्ति सत्यात् परो धर्मः।" "सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं है।" "धैर्यं सर्वत्र साधनम्। ""धैर्य सभी परिस्थितियों में साधन है।"ये उद्धरण महाभारत के भीतर वेद व्यास के गहरे और दार्शनिक विचारों को प्रतिबिंबित करते हैं। धृतराष्ट्र को युद्ध के दृश्य दिखाने के संदर्भ में संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर गीत का माहात्म्य को सुगम बनाया "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।" "हे भारत, जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने आप को प्रकट करता हूँ।" "यो धर्मेण युज्यते स पाण्डवः।" "जो धर्म के साथ जुड़ा है, वही पांडव है।" "यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।" "जहाँ योगेश्वर कृष्ण हैं और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन हैं, वहाँ श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।" "तत्त्वतः तु विदुर्मां ते पाण्डवा धनुर्धराः।" "वास्तव में वे पांडव ही मुझे जानते हैं।" वेद व्यास को महाभारत में एक महान ऋषि और मार्गदर्शक के रूप में चित्रित किया गया है। उन्होंने कई महत्वपूर्ण पात्रों को समय-समय पर मार्गदर्शन और सलाह दी। वे पांडवों और कौरवों दोनों के ही कुलगुरु थे।उन्होंने धृतराष्ट्र को विभिन्न अवसरों पर सलाह दी और युद्ध के परिणामों के बारे में बताया। "अधर्मो हि अमृतात् प्रेत्य लोकान् हन्ति यथा विषम्।" "अधर्म मृत्यु के बाद भी मनुष्य को उसी प्रकार नष्ट करता है जैसे विष।" "धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।" "धर्म की हत्या करने वाला स्वयं मारा जाता है, धर्म की रक्षा करने पर धर्म हमारी रक्षा करता है। इसलिए धर्म की हत्या न करें, अन्यथा धर्म हमारी हत्या कर देगा।" "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।" "साधुओं की रक्षा और दुष्टों के विनाश के लिए, धर्म की स्थापना के लिए मैं प्रत्येक युग में जन्म लेता हूँ।" "दुर्बलस्य बलं राजा, निर्बलस्य बलं बलम्। असिद्धस्य बलं विद्या, विद्या सर्वस्य भूषणम्।" "दुर्बल का बल राजा होता है, निर्बल का बल बल होता है, असिद्ध का बल विद्या होती है, और विद्या सबका आभूषण होती है।" "अहिंसा परमोधर्मः।" "अहिंसा परम धर्म है।" "न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारि। व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।" "ज्ञान ऐसा धन है जिसे न चोर चुरा सकता है, न राजा हड़प सकता है, न भाई बाँट सकता है, न भार ढो सकता है। व्यय करने पर यह सदैव बढ़ता है और यह सभी धनों में श्रेष्ठ है।"ये उद्धरण वेद व्यास की महानता, उनके ज्ञान और मार्गदर्शन को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं। उन्होंने महाभारत के प्रमुख पात्रों को समय-समय पर महत्वपूर्ण सलाह और मार्गदर्शन दिया। वेद व्यास ने कई महत्वपूर्ण घटनाओं में भाग लिया और उन्हें प्रभावित किया। उन्होंने धृतराष्ट्र को युद्ध के दृश्य दिखाए, जो वे स्वयं देख नहीं सकते थे। उन्होंने गांधारी को वरदान दिया जिसके कारण उन्हें कुरु राजकुमारों का जन्म हुआ। जब युधिष्ठिर और उनके भाई वनवास पर थे, तब वेद व्यास ने उन्हें प्रेरणा और सलाह दी। उन्होंने अर्जुन को दिव्यास्त्रों की प्राप्ति के लिए तपस्या करने का निर्देश दिया। वेद व्यास ने भीम और द्रौपदी को वनवास के दौरान सांत्वना दी और उनके दुखों को कम करने के उपाय बताए। महाभारत युद्ध के बाद, वेद व्यास ने युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति पर शिक्षा दी। उन्होंने युधिष्ठिर को उनके कर्तव्यों का बोध कराया और उन्हें भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार किया। युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति पर शिक्षा देने के संदर्भ में: "धर्मेण धार्यते लोकाः ""धर्म से ही लोकों का धारण होता है।" "सत्यं वद, धर्मं चर।" "सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो।"कर्तव्यों का बोध कराने के संदर्भ में: "नैव क्लेशोऽस्ति तज्ज्ञाने, यथा स्यान्निरये भवः ""ज्ञान से कभी क्लेश नहीं होता, जैसे अज्ञान से नरक प्राप्त होता है।" "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" "अपने धर्म में मरना भी श्रेयस्कर है, दूसरों का धर्म भयावह होता है।"भविष्य की चुनौतियों का सामना करने के संदर्भ में: "वयमिन्द्रजितो देवाः, सत्येन महता हतः ""हम देवता सत्य के द्वारा इन्द्र को जीत सकते हैं।" "असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। ""हे महाबाहु, निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है, किन्तु अभ्यास और वैराग्य से इसे वश में किया जा सकता वेद व्यास महाभारत के मुख्य स्तंभ थे। उनकी उपस्थिति और मार्गदर्शन ने इस महाकाव्य की गहराई और प्रभाव को बढ़ाया। वे एक ऋषि, मार्गदर्शक, और रचयिता के रूप में महाभारत में केंद्रीय भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार, वेद व्यास का अद्वितीय योगदान उन्हें भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपरा में अमर बना देता है। उनकी शिक्षाओं और रचनाओं का प्रभाव आज भी समाज में देखा जा सकता है, और वे निस्संदेह भारतीय संस्कृति के महानतम ऋषियों में से एक हैं। उनके कार्यों ने न केवल प्राचीन भारत को, बल्कि आधुनिक युग को भी समृद्ध किया है, जिससे वे अनंत काल तक स्मरणीय रहेंगे।

  • सरयू के तट पर: राजा दशरथ और ऋषि श्रृंगी की कथा

    यह कथा सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या नगरी की है, जहां राजा दशरथ पुत्र न होने के दुःख से व्यथित हैं। उनकी रानी कौशल्या उन्हें महान ऋषि श्रृंगी के पास जाने का सुझाव देती हैं, जो पुत्र कामेष्टि यज्ञ में निपुण हैं और संतान सुख दिलाने में समर्थ हैं। इस यात्रा और यज्ञ के माध्यम से, अयोध्या में चार महान राजकुमारों - राम, लक्ष्मण, भरत, और शत्रुघ्न - का जन्म होता है, जो सूर्य वंश की महिमा को सदा के लिए अमर कर देते हैं। सरयू नदी, जिसे मेगस्थनीज ने 'सोलोमत्तिस' और टालेमी ने 'सोरोबेस' कहा है, यह एक वैदिक कालीन नदी है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसी के किनारे इंद्र ने दो आर्यों का वध किया था। (ऋग्वेद ४.१३.१८ ) रामायण काल में यह नदी अयोध्या से होकर बहती है। दशरथ की अयोध्या नगरी और ऋषि श्रृंगी का आश्रम इसी के तट पर है। यह नदी दशरथ के पुत्र न होने के दुःख की साक्षी है और ऋषि श्रृंगी के प्रयासों की भी।"रानी कौशल्या! प्रतीत होता है, मेरे भाग्य में पुत्र सुख है ही नहीं, मैं अयोध्या की प्रजा से क्या कहूं? कि मैं उनको भावी राजा देने में असमर्थ रहा, मैं अपने पूर्वजों से क्या कहूं कि उनका सूर्य वंश अब अस्त होने वाला है।""नहीं महाराज! आप इस तरह विलाप न करें। एक बार हमें अपने जामात्रा से इस विषय में वार्तालाप कर लेना चाहिए। आप जानते है श्रृंगी पुत्र कामेष्टि यज्ञ में निपुण हैं। वह हमें और अयोध्या की प्रजा को कभी निराश नहीं करेगा।""ऋषि श्रृंगी!" दशरथ आशा भरे शब्दों के साथ कौशल्या को देखते हैं और उनके आश्रम जाने का विचार करते हैं। ऋषि श्रृंगी का आश्रम सूर्यगढ़ा प्रखण्ड में पहाड़ों के बीच स्थित है। यहां की पहाड़ों की चट्टाने शंकु के आकार की है। यह आकर आश्रम तक आते-आते झुक जाते हैं। यहां का सौंदर्य अप्रतिम है। नित्य-प्रतिदिन यज्ञों, मंत्रो और सूक्तों की ध्वनि आश्रम को एक नवीन मूर्त रूप प्रदान करती है। महान ऋषि विभांडक के पुत्र श्रृंगी को एक दिव्य ज्ञान प्राप्त है। वह पुत्र कामेष्टि यज्ञ के द्वारा किसी को भी संतान सुख प्रदान कर सकते हैं। राजा दशरथ पैदल ही अपनी तीनों रानियों के साथ चल पड़ते हैं। शिष्यों को राजा दशरथ के आने की सूचना मिलती है।  "गुरुदेव! महाराज दशरथ हमारे आश्रम पधारे हैं और आप से मिलने की अनुमति चाहते हैं।" दशरथ का नाम सुनते ही ऋषि अपने आसन से उठ कर राजा का स्वागत करते हैं। " कहिए राजन्! कैसे आना हुआ?"ऋषि माता शांता अपनी माता कौशल्या को देखकर अति प्रसन्न होती हैं और दोनों गले लगती हैं। "गुरुदेव! आपसे क्या छुपाना आप हमारे दुःख से भलीभाती परिचित हैं? कई वर्ष बीत गए और अभी तक हमारी प्रजा राजकुमार के सुख से वंचित है।"" ठीक है राजन्! मैं एक ऐसा यज्ञ जानता हूं जिससे आपकी तीनों रानियों को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो सकती है।" राजा यह वचन सुनकर अति हर्षित होते हैं, उन्हें लगता हैं जैसे वह अब इस वंश हीनता के कलंक से मुक्त हो सकेंगे, और अपने सूर्य वंश को आगे बढ़ाने में सहयोग दे सकेंगे। अगले दिन पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन किया जाता है। यह यज्ञ बारह दिनों तक चलता है और एक दिन यज्ञ से अग्नि देव अपने हाथों में खीर का कटोरा लेकर प्रकट होते हैं। "राजन्! हम देवता आपके यज्ञ से अति प्रसन्न हुए। आप यह खीर अपने तीनों रानियों को खिला दीजिए गा। आपको अवश्य ही पुत्रों की प्राप्ती होंगी, ऐसे पुत्र जो इस इक्ष्वाकु वंश को सदैव के लिए अमर कर देंगे।"राजा दशरथ अग्नि देव को प्रणाम करते हैं। ऋषि श्रृंगी खीर ग्रहण करते हैं और उसे रानियों को एक समान बाट कर खाने का आदेश करते हैं। रानियां प्रसन्नता पूर्वक खीर ग्रहण करती हैं। राजा दशरथ हाथ जोड़ कर कहते हैं—"हम आपके बहुत ऋणी हैं, ऋषि श्रृंगी। हमारे यज्ञ को सफल बनाने के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद। आश्रम और अयोध्या नगरी में इस समय उत्सव का वातावरण है। समयानुसार अयोध्या में चार राजकुमारों का जन्म होता है। कौशल्या से राम, सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न और कैकेई से भरत का जन्म हुआ।

  • कबीर के दोहे: सरल शब्दों में गहरी सिखावन

    कबीरदास का जीवन सादगी और सेवा का प्रतीक था। उन्होंने भक्ति आंदोलन को नया दृष्टिकोण दिया और अपने समय के सामाजिक और धार्मिक आडंबरों का खुलकर विरोध किया। उनके दोहे और रचनाएं हमें प्रेम, सहिष्णुता, अहंकार रहित जीवन और सच्चाई का मार्ग दिखाते हैं। संत कबीरदास भारतीय संस्कृति के एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने दोहों और भजनों के माध्यम से समाज को गहन और सरल जीवन सिखावन प्रदान की। उनका जन्म 15वीं सदी में हुआ था, और उनके जीवन के बारे में कई कहानियां और मिथक प्रचलित हैं। कबीर साहब का जन्म कब हुआ, यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। एक मान्यता और कबीर सागर के अनुसार उनका जन्म सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय लहरतारा तालाब में कमल पर हुआ था। जहां से नीरू नीमा नामक दंपति उठा ले गए थे । उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। वे जुलाहे का काम करके निर्वाह करते थे और रामानंद जी इनके गुरु थे। कबीर के दोहे सरल शब्दों में गहरी सिखावन हैं लेकिन उनकी गहराई असाधारण है। उनके अनुसार, ईश्वर की प्राप्ति के लिए किसी विशेष धर्म या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सच्चे मन से प्रेम और भक्ति ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग है। कबीर के दोहों में वेदों, पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों की गूढ़ बातों को सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है, जिससे आम जनता भी गहन आध्यात्मिकता को समझ सके। कबीरदास, जो एक प्रसिद्ध संत और कवि थे, उन्होंने काव्य के माध्यम से कई महत्वपूर्ण दोहे दिए, वास्तव में ये सारे दोहे, कबीर की बातें, सरल शब्दों में गहरी सिखावन हैं । उनके दोहों में जीवन, समाज और धर्म के बारे में गहन शिक्षाएं छिपी हैं। यहां कुछ प्रसिद्ध दोहे दिए गए हैं: कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं बाजार में लुकाठी (आग की मशाल) लेकर खड़ा हूं। जो व्यक्ति अपने अहंकार और मोह-माया को जलाने के लिए तैयार है, वह मेरे साथ चले। बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब मैं दूसरों में बुराई ढूंढने निकला, तो मुझे कोई बुरा व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने दिल में झांककर देखा, तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है। साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि साधु को सूप (अनाज साफ करने वाला) जैसा होना चाहिए, जो सार्थक चीजों को पकड़ लेता है और बेकार को उड़ा देता है। कबीरा तेरी झोंपड़ी, गल कटियन के पास। जो करै सो भरैगा, तू क्यों भया उदास।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि तेरी झोंपड़ी कसाई (गल काटने वाले) के पास है। जो भी कर्म करेगा, वह उसका फल भोगेगा। इसलिए, तू क्यों उदास हो रहा है? पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि दुनिया ने बहुत सी किताबें पढ़कर भी पंडित नहीं बन पाई। यदि कोई प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ ले, तो वही सच्चा पंडित हो जाता है।कबीरदास के ये दोहे आज भी समाज में प्रासंगिक हैं और जीवन को सरल, सच्चा और उद्देश्यपूर्ण बनाने की प्रेरणा देते हैं। कबीरदास के दोहों में जीवन की सच्चाइयों और गहरी आध्यात्मिक शिक्षाओं को सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है। अन्य दोहे इस प्रकार हैं: माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि माला फेरते-फेरते पूरा जीवन बीत गया, लेकिन मन का फेर (अहंकार और वासनाएं) नहीं बदला। असली सुधार तब होता है जब हम हाथ की माला छोड़कर मन के मोतियों को बदलें। ऐसा कोई न मिले, हमको दे उपदेस। रहिमन ऐसा कौन है, सब दिन रहा न होश।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसा कोई नहीं मिला जो हमें सच्चा उपदेश दे सके। सभी लोग हर समय अपनी समझ में ही रहते हैं। जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं। सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माहीं।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब तक मेरे भीतर अहंकार था, तब तक ईश्वर का अनुभव नहीं हो सका। जब अहंकार मिट गया, तो मैंने ईश्वर को हर जगह देखा और सारा अंधकार मिट गया। जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय। यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि इस दुनिया में कोई शत्रु नहीं है, यदि हमारा मन शांत और शीतल हो। अगर हम अपने अहंकार को छोड़ दें, तो सभी लोग दयालु हो जाएंगे। देख पराई चूपड़ी, मत ललचावे जी। तेरे डॉले तीनि में, साईं भरैगा जी।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि दूसरों की संपत्ति देखकर लालच मत करो। तुम्हारे हिस्से में जो भी है, ईश्वर उसे पूर्ण कर देगा। धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि हे मन, सब कुछ धीरे-धीरे होता है। माली चाहे सौ घड़े पानी डाल दे, लेकिन फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा। तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँवन तर होय। कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि कभी भी छोटे और कमजोर व्यक्ति की निंदा मत करो। हो सकता है कि वह तिनका आपके पैर के नीचे हो, लेकिन अगर वही तिनका उड़कर आँख में पड़ जाए, तो बहुत पीड़ा होगी। कबीर के ये दोहे हमें सच्चाई, ईमानदारी, सहिष्णुता और आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाते हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं। कबीर का प्रभाव आज भी व्यापक है। उनके विचार और शिक्षाएं न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में लोगों को प्रेरित करती हैं। उनकी सादगी और सच्चाई भरे दोहे सदियों से जनमानस को मार्गदर्शन देते आ रहे हैं और भविष्य में भी देते रहेंगे।

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Sadhana Sansar

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