कबीरदास का जीवन सादगी और सेवा का प्रतीक था। उन्होंने भक्ति आंदोलन को नया दृष्टिकोण दिया और अपने समय के सामाजिक और धार्मिक आडंबरों का खुलकर विरोध किया। उनके दोहे और रचनाएं हमें प्रेम, सहिष्णुता, अहंकार रहित जीवन और सच्चाई का मार्ग दिखाते हैं।
संत कबीरदास भारतीय संस्कृति के एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने दोहों और भजनों के माध्यम से समाज को गहन और सरल जीवन सिखावन प्रदान की। उनका जन्म 15वीं सदी में हुआ था, और उनके जीवन के बारे में कई कहानियां और मिथक प्रचलित हैं। कबीर साहब का जन्म कब हुआ, यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। एक मान्यता और कबीर सागर के अनुसार उनका जन्म सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय लहरतारा तालाब में कमल पर हुआ था। जहां से नीरू नीमा नामक दंपति उठा ले गए थे । उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। वे जुलाहे का काम करके निर्वाह करते थे और रामानंद जी इनके गुरु थे।
कबीर के दोहे सरल शब्दों में गहरी सिखावन हैं लेकिन उनकी गहराई असाधारण है। उनके अनुसार, ईश्वर की प्राप्ति के लिए किसी विशेष धर्म या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सच्चे मन से प्रेम और भक्ति ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग है। कबीर के दोहों में वेदों, पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों की गूढ़ बातों को सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है, जिससे आम जनता भी गहन आध्यात्मिकता को समझ सके।
कबीरदास, जो एक प्रसिद्ध संत और कवि थे, उन्होंने काव्य के माध्यम से कई महत्वपूर्ण दोहे दिए, वास्तव में ये
सारे दोहे, कबीर की बातें, सरल शब्दों में गहरी सिखावन हैं । उनके दोहों में जीवन, समाज और धर्म के बारे में गहन शिक्षाएं छिपी हैं। यहां कुछ प्रसिद्ध दोहे दिए गए हैं:
कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ।
जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं बाजार में लुकाठी (आग की मशाल) लेकर खड़ा हूं। जो व्यक्ति अपने अहंकार और मोह-माया को जलाने के लिए तैयार है, वह मेरे साथ चले।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब मैं दूसरों में बुराई ढूंढने निकला, तो मुझे कोई बुरा व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने दिल में झांककर देखा, तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि साधु को सूप (अनाज साफ करने वाला) जैसा होना चाहिए, जो सार्थक चीजों को पकड़ लेता है और बेकार को उड़ा देता है।
कबीरा तेरी झोंपड़ी, गल कटियन के पास।
जो करै सो भरैगा, तू क्यों भया उदास।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि तेरी झोंपड़ी कसाई (गल काटने वाले) के पास है। जो भी कर्म करेगा, वह उसका फल भोगेगा। इसलिए, तू क्यों उदास हो रहा है?
पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि दुनिया ने बहुत सी किताबें पढ़कर भी पंडित नहीं बन पाई। यदि कोई प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ ले, तो वही सच्चा पंडित हो जाता है।कबीरदास के ये दोहे आज भी समाज में प्रासंगिक हैं और जीवन को सरल, सच्चा और उद्देश्यपूर्ण बनाने की प्रेरणा देते हैं।
कबीरदास के दोहों में जीवन की सच्चाइयों और गहरी आध्यात्मिक शिक्षाओं को सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है। अन्य दोहे इस प्रकार हैं:
माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि माला फेरते-फेरते पूरा जीवन बीत गया, लेकिन मन का फेर (अहंकार और वासनाएं) नहीं बदला। असली सुधार तब होता है जब हम हाथ की माला छोड़कर मन के मोतियों को बदलें।
ऐसा कोई न मिले, हमको दे उपदेस।
रहिमन ऐसा कौन है, सब दिन रहा न होश।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसा कोई नहीं मिला जो हमें सच्चा उपदेश दे सके। सभी लोग हर समय अपनी समझ में ही रहते हैं।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माहीं।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब तक मेरे भीतर अहंकार था, तब तक ईश्वर का अनुभव नहीं हो सका। जब अहंकार मिट गया, तो मैंने ईश्वर को हर जगह देखा और सारा अंधकार मिट गया।
जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि इस दुनिया में कोई शत्रु नहीं है, यदि हमारा मन शांत और शीतल हो। अगर हम अपने अहंकार को छोड़ दें, तो सभी लोग दयालु हो जाएंगे।
देख पराई चूपड़ी, मत ललचावे जी।
तेरे डॉले तीनि में, साईं भरैगा जी।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि दूसरों की संपत्ति देखकर लालच मत करो। तुम्हारे हिस्से में जो भी है, ईश्वर उसे पूर्ण कर देगा।
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि हे मन, सब कुछ धीरे-धीरे होता है। माली चाहे सौ घड़े पानी डाल दे, लेकिन फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा।
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँवन तर होय।
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि कभी भी छोटे और कमजोर व्यक्ति की निंदा मत करो। हो सकता है कि वह तिनका आपके पैर के नीचे हो, लेकिन अगर वही तिनका उड़कर आँख में पड़ जाए, तो बहुत पीड़ा होगी।
कबीर के ये दोहे हमें सच्चाई, ईमानदारी, सहिष्णुता और आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाते हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं।
कबीर का प्रभाव आज भी व्यापक है। उनके विचार और शिक्षाएं न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में लोगों को प्रेरित करती हैं। उनकी सादगी और सच्चाई भरे दोहे सदियों से जनमानस को मार्गदर्शन देते आ रहे हैं और भविष्य में भी देते रहेंगे।
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