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कबीर का सन्देश: बाहरी आडंबर से परे सच्ची भक्ति का मार्ग


मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपरा।

आसन मारि मंदिर में बैठै,

ब्रह्म-छाँड़ि पूजन लागे पथरा॥ [1]

कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले,

दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।

जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले,

काम जराय जोगी होय गैले हिजरा॥ [2]

मथवा मुँड़ाय जोगी कपड़ा रँगौले,

गीता बाँच के होय गैले लबरा।

कहहिं ‘कबीर’ सुनो भाई साधो,

जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा॥ [3]


श्री कबीरदास का यह दोहा जीवन और आध्यात्मिकता के गहरे सार को उजागर करता है। कबीरदास जी ने इस दोहे के माध्यम से बाहरी आडंबर और दिखावे पर प्रहार किया है और सच्चे प्रेम और आंतरिक शुद्धता की आवश्यकता पर बल दिया है। इस लेख में हम विस्तार से जानेंगे कि कबीरदास जी इस दोहे के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं और इसका जीवन पर क्या प्रभाव है।


1. परिचय

कबीरदास जी भारतीय संत कवियों में से एक महान संत थे, जिनकी रचनाएँ भक्ति, प्रेम और आध्यात्मिकता से भरपूर हैं। उनके दोहे जीवन के गहरे सत्य को सरल शब्दों में उजागर करते हैं। "मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपरा" उनका एक ऐसा ही दोहा है, जिसमें उन्होंने धार्मिक आडंबर और सच्ची भक्ति के बीच के अंतर को स्पष्ट किया है।


2. कबीरदास का जीवन परिचय

कबीरदास जी का जन्म 15वीं शताब्दी में हुआ था। वे एक संत, कवि और समाज सुधारक थे। उनका जीवन साधारण था, लेकिन उनकी सोच और उनके उपदेश समाज को जागरूक करने वाले थे। कबीरदास ने सच्ची भक्ति और प्रेम के महत्व को समझाया, और धर्म के नाम पर होने वाले दिखावों का विरोध किया।


3. दोहा का भावार्थ


3.1 पहली पंक्ति का अर्थ: "मन ना रँगाये रँगाये जोगी कपरा"

कबीरदास इस पंक्ति के माध्यम से बताते हैं कि जोगी ने केवल अपने कपड़े रंगवा लिए हैं, लेकिन उसका मन शुद्ध नहीं हुआ है। बाहरी रंगाई और कपड़ों से आध्यात्मिकता हासिल नहीं की जा सकती, इसके लिए आंतरिक शुद्धता जरूरी है।

3.2 दूसरी पंक्ति का अर्थ: "आसन मारि मंदिर में बैठै, ब्रह्म-छाँड़ि पूजन लागे पथरा"

यहाँ कबीरदास मंदिर में बैठकर भगवान की मूर्ति की पूजा करने वाले जोगी का चित्रण करते हैं। वह भगवान को पत्थर में ढूँढ़ता है, लेकिन ब्रह्म (सर्वव्यापी परमात्मा) की सच्ची भावना को छोड़ देता है। सच्ची पूजा बाहर नहीं, बल्कि अपने ह्रदय में होनी चाहिए।

3.3 तीसरी पंक्ति का अर्थ: "कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा"

कबीरदास बताते हैं कि जोगी ने अपने कान छिदवा लिए, बाल और दाढ़ी बढ़ा ली, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह सच्चा संत बन गया। वह बाहरी दिखावे से केवल बकरे जैसा दिखता है, लेकिन सच्ची साधना के बिना वह आत्मिक विकास नहीं कर सकता।


कबीर का सन्देश

4. बाहरी आडंबर का विरोध

कबीरदास जी ने अपने कई दोहों के माध्यम से बाहरी आडंबर का विरोध किया है। इस दोहे में भी उन्होंने उसी का उदाहरण दिया है, कि बाहरी दिखावे से सच्ची भक्ति नहीं की जा सकती। जोगी का सिर मुंडवाना, कपड़े रंगवाना, और गीता पढ़ना केवल बाहरी क्रियाएँ हैं, जबकि सच्चा भक्ति का मार्ग आंतरिक शुद्धता से होकर गुजरता है। यहाँ यह तात्पर्य बिल्कुल नहीं है कि कबीरदास इन सब क्रियाओं का विरोध कर रहें, इस का तात्पर्य यह है कि यह सब क्रिया स्वभाविक होनी चाहिये, प्रयास पूर्ण नहीं होना चाहिये, अर्थात हम ईश्वरीय प्रेम में इतने डूब जाएँ कि अनायास ही हमारी रुचि सांसारिक वस्तुओं से विमुक्त हो जाए। होता ठीक इसके विपरीत है, लोग भगवा वस्त्र धारण कर लेंगे, सिर मुड़वा लेंगे, रोज गीता का पाठ करेंगे, परंतु मन तो अंदर से अभी भी मान, प्रतिष्ठा, सम्मान आदि की भूख से अकुलाया रहता है। तो कबीरदास का कहना है कि पहले मन को नियंत्रित कर बाहरी आडंबरों से निकाल कर, ईश्वर के प्रेम रस से सिंचित हो।


5. प्रेम का सच्चा रंग

कबीरदास जी ने सच्चे प्रेम को जीवन का मूल आधार माना है। उनका मानना था कि सच्चे प्रेम के बिना कोई भी भक्ति या साधना पूरी नहीं हो सकती। जब तक मन प्रेम के रंग में रंगा हुआ नहीं होता, तब तक सारी साधनाएँ व्यर्थ हैं। सच्चा प्रेम ही इंसान को ईश्वर से जोड़ सकता है।


6. मूर्ति पूजा और आंतरिक भक्ति का अंतर

कबीरदास ने इस दोहे में स्पष्ट किया कि मूर्ति पूजा केवल एक माध्यम है, लेकिन इसका वास्तविक अर्थ तभी है जब भक्ति ह्रदय से की जाए। यदि इंसान केवल पत्थर की पूजा करता है और ईश्वर की सर्वव्यापकता को भूल जाता है, तो उसकी पूजा निष्फल हो जाती है। अर्थात पहले मन में प्रेम का संचार करो मन चाहे मंदिर में हो या मंदिर के बाहर हर समय ईश्वरीय प्रेम में डूबा रहना चाहिए। ऐसा न हो कि हम जब ईश्वर की मूर्ति के सामने हो तो पूजा का आडंबर करें और मंदिर से बाहर निकलते ही हम ईश्वर को भूल जाएँ और सांसारिक भोग में निमग्न रहें। तो इस प्रकार की गयी मूर्ति पूजा व्यर्थ है, एक प्रकार से धोखा है।


7. कान छिदवाना और जटाएं बढ़ाना: आध्यात्मिकता या दिखावा?

आज के समय में भी हम देखते हैं कि कई लोग अपने शरीर पर धार्मिक चिन्हों को धारण करते हैं, जैसे कान छिदवाना, बाल बढ़ाना, लेकिन यह सब दिखावा मात्र है यदि इसके पीछे सच्ची भावना न हो। कबीरदास जी ने इसे बाहरी पाखंड के रूप में देखा और इस तरह के कार्यों को निरर्थक बताया जब तक कि मन शुद्ध न हो।


8. काम-वासना का दमन और उसकी विपरीत प्रतिक्रियाएँ

कबीरदास जी ने काम-वासना के दमन को भी हिजड़े की स्थिति से तुलना की है। उनके अनुसार, किसी भावना को दबाना उसकी समस्या का समाधान नहीं है। सच्चा समाधान है उस भावना को समझना और उसे सही दिशा में उपयोग करना। जोगी का जंगल में जाकर धूनी रमाना भी केवल एक दिखावा है। यदि मन नित्य ईश्वर में नहीं है।


9. सिर मुंडवाना और गीता पढ़ना: क्या यह सच्ची भक्ति है?

गीता पढ़ना और सिर मुंडवाना तभी सार्थक है जब उसके साथ सच्ची भक्ति और आंतरिक शुद्धता हो। केवल ग्रंथ पढ़ने से या अपने शरीर को बदलने से कोई भी व्यक्ति संत नहीं बनता। इसके लिए मन का शुद्ध होना अनिवार्य है।

यह सार कबीरदास के गहरे उपदेशों को उजागर करता है, जो बाहरी धार्मिक दिखावे और रीति-रिवाजों की आलोचना पर आधारित हैं। कबीर यह संदेश देते हैं कि सच्ची भक्ति बाहरी प्रतीकों, रंगे वस्त्रों, या धार्मिक अनुष्ठानों में नहीं है, बल्कि हृदय की पवित्रता और प्रेम में है। यह संदेश लोगों को आध्यात्मिकता के बाहरी पक्षों से परे जाकर, आंतरिक रूप से ईश्वर से प्रेम और सच्चे समर्पण के माध्यम से जुड़ने के लिए प्रेरित करता है। कबीर बाह्य पाखंड को त्यागने और सच्चे आध्यात्मिक सरलता को अपनाने का आह्वान करते हैं।

10. कबीरदास का संदेश: शुद्ध प्रेम और भक्ति

कबीरदास का प्रमुख संदेश यह है कि बिना सच्चे प्रेम और भक्ति के कोई भी साधना सफल नहीं हो सकती। बाहरी पाखंड और दिखावे से जीवन में शांति और मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। सच्ची भक्ति वह है जो मन से की जाए, बिना किसी आडंबर के।


11. आधुनिक समाज में कबीरदास के दोहे की प्रासंगिकता

आज के समय में कबीरदास के दोहे और भी अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। लोग धार्मिक क्रियाओं में लिप्त हैं, लेकिन उनके पीछे सच्ची भावना नहीं है। समाज में धार्मिक आडंबर बढ़ गए हैं, और कबीर का यह संदेश हमें याद दिलाता है कि हमें अपनी भक्ति और साधना को शुद्ध प्रेम और सच्ची भावना से करना चाहिए।


12. बाहरी और आंतरिक पवित्रता का महत्त्व

कबीरदास ने सिखाया कि बाहरी पवित्रता से ज्यादा जरूरी आंतरिक पवित्रता है। जब तक हमारा मन शुद्ध नहीं होगा, तब तक बाहरी क्रियाएँ बेकार हैं। हमें अपने विचारों और भावनाओं को पवित्र करना चाहिए, तभी हम सच्ची भक्ति कर सकते हैं।


13. धार्मिक आडंबर और आध्यात्मिकता के बीच संघर्ष

धार्मिक आडंबर और आध्यात्मिकता के बीच एक संघर्ष हमेशा से रहा है। कबीरदास जी ने इस संघर्ष को स्पष्ट करते हुए बताया कि बाहरी आडंबर केवल दिखावा है, जबकि आध्यात्मिकता का असली अर्थ आंतरिक शुद्धता और सच्चे प्रेम में है।


14. कबीर का निर्गुण भक्ति मार्ग

कबीरदास निर्गुण भक्ति के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने साकार भगवान की बजाय निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल दिया। उनके अनुसार, भगवान हर जगह है और उसे किसी मूर्ति या मंदिर में सीमित नहीं किया जा सकता। सच्ची भक्ति उसे अपने अंदर ढूँढ़ने में है।


15. कबीर का सन्देश

कबीर का सन्देश है कि सच्ची भक्ति बाहरी दिखावे में नहीं, बल्कि आंतरिक शुद्धता और प्रेम में है। बिना प्रेम और सच्ची भावना के, कोई भी साधना पूरी नहीं हो सकती। हमें अपने जीवन में पाखंड से बचना चाहिए और सच्ची भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।


FAQs

  1. कबीरदास का यह दोहा किस पर आधारित है? यह दोहा बाहरी आडंबर और सच्ची भक्ति के बीच के अंतर को समझाने पर आधारित है।

  2. क्या केवल कपड़े रंगने से कोई साधु बन सकता है? नहीं, कबीरदास के अनुसार, साधु बनने के लिए आंतरिक शुद्धता और प्रेम आवश्यक है।

  3. कबीरदास ने मूर्ति पूजा का विरोध क्यों किया? उन्होंने इसे इसलिए विरोध किया क्योंकि वे मानते थे कि सच्ची भक्ति हृदय से होनी चाहिए। वास्तव में लोग पूजा को एक नित्य कर्म की तरह कर के उसके बाद ईश्वर की भूल जाते हैं।

  4. क्या बाहरी धार्मिक चिन्ह जरूरी हैं? कबीरदास के अनुसार, बाहरी धार्मिक चिन्ह केवल दिखावा हैं, जब तक कि उनके पीछे सच्ची भावना न हो। चिह्न शरीर में धारण करें परंतु वह चिह्न तुम्हारे मन का दर्पण होना चाहिये, ऐसा न हो कि तुमने शंख और चक्र का चिह्न तो धारण कर लिया परंतु मन तो अभी भी भोग-विलास में है, तब यह चिह्न धारण करना आडंबर बन जाता है।

  5. कबीरदास की निर्गुण भक्ति का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है ईश्वर को निराकार रूप में मानना और उसकी भक्ति करना।


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