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धन्याष्टकम्- शंकराचार्य के दस श्लोकों में छिपे गूढ़ ज्ञान का परिचय

लेखक की तस्वीर: Dr.Madhavi Srivastava Dr.Madhavi Srivastava

अपडेट करने की तारीख: 24 नव॰ 2024


धन्याष्टकम् श्रीमद् शंकराचार्य द्वारा रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जो अद्वैत वेदांत के सार का उत्कृष्ट वर्णन करता है। इस स्तोत्र में, शंकराचार्य ने उन धन्य व्यक्तियों की स्तुति की है जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके हैं और संसार के भ्रम से मुक्त हो चुके हैं। यह लेख धन्याष्टकम् के श्लोकों का विस्तार से विश्लेषण करेगा, जिसमें शंकराचार्य के द्वारा वर्णित आत्मा और मोक्ष के मार्ग को समझाने का प्रयास किया जाएगा। शंकराचार्य भारतीय दर्शन और अध्यात्म के क्षेत्र में एक महान संत और दार्शनिक थे। उन्होंने अद्वैत वेदांत का प्रचार-प्रसार किया और कई महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की, जिनमें से एक प्रमुख है धन्याष्टकम्। उनके द्वारा रचित यह स्तोत्र साधकों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है, जो आत्मज्ञान और मोक्ष की ओर अग्रसर होना चाहते हैं। धन्याष्टकम् एक स्तोत्र है जिसमें दस श्लोक हैं, जिनमें शंकराचार्य ने धन्य व्यक्तियों की महिमा का वर्णन किया है। ये वे लोग हैं जिन्होंने संसारिक मोह-माया से स्वयं को मुक्त कर लिया है और आत्मा की सच्ची पहचान को प्राप्त कर लिया है। धन्याष्टकम् का हर श्लोक साधकों के लिए गहरी प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करता है।



1.इंद्रियों का संयम


पहले श्लोक में शंकराचार्य कहते हैं कि सच्चे ज्ञान से ही इंद्रियों को नियंत्रित किया जा सकता है। वे इस ज्ञान की महिमा बताते हैं, जो इंद्रियों की शांति का कारण बनता है। इस श्लोक में शंकराचार्य ने उन लोगों को धन्य कहा है जिन्होंने उपनिषदों में वर्णित सत्य का साक्षात्कार कर लिया है और जीवन के परम अर्थ को जान लिया है।


2.योगराज्य की स्थापना


दूसरे श्लोक में, शंकराचार्य उन धन्य लोगों का वर्णन करते हैं जिन्होंने विषयों पर विजय प्राप्त कर ली है और आत्मविद्या के सुख को अनुभव किया है। वे अपने मन को नियंत्रित कर योगराज्य की स्थापना करते हैं और वन में विचरण करते हुए आत्मा की सच्ची स्थिति का अनुभव करते हैं। यह श्लोक बताता है कि किस प्रकार आत्मा की पहचान और विषयों पर विजय प्राप्त करके मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है।


3. गृह त्याग का महत्व


इस श्लोक में शंकराचार्य बताते हैं कि जो लोग गृहस्थ जीवन की मोह-माया को त्यागकर आत्मा के ज्ञान का रस पान करते हैं, वे धन्य हैं। ये लोग विषयों के भोग से विरक्त होते हैं और अकेलेपन में आत्मज्ञान के मार्ग पर चलते हैं। यह श्लोक उन साधकों के लिए प्रेरणा है जो गृहस्थ जीवन से बाहर निकलकर आत्मा की खोज में लग जाते हैं।


4. अहं का त्याग


चौथे श्लोक में शंकराचार्य उन लोगों की स्तुति करते हैं जिन्होंने 'मम' और 'अहं' की भावना का त्याग कर दिया है। वे समान दृष्टि वाले होते हैं और किसी भी कार्य के फल को ईश्वर को अर्पित कर देते हैं। यह श्लोक कर्मयोग की महिमा का वर्णन करता है और बताता है कि किस प्रकार ममत्व और अहंकार का त्याग कर व्यक्ति मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकता है।


5.मोक्ष मार्ग की तलाश


इस श्लोक में, शंकराचार्य उन धन्य लोगों का वर्णन करते हैं जिन्होंने त्रिविध इच्छाओं को त्याग कर मोक्ष मार्ग की तलाश की है। वे भिक्षा से अपनी देह यात्रा को चलाते हैं और परमात्मा के प्रकाश को हृदय में धारण करते हैं। यह श्लोक साधकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है जो मोक्ष की प्राप्ति के लिए तैयार हैं।


6. ब्रह्म की उपासना


षष्ठे श्लोक में शंकराचार्य उन लोगों की स्तुति करते हैं जिन्होंने ब्रह्म की एकचित्त उपासना की है। वे संसार के बंधनों से मुक्त हो गए हैं और मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं। यह श्लोक अद्वैत वेदांत के सिद्धांत की पुष्टि करता है और साधकों को ब्रह्म के साक्षात्कार की दिशा में प्रेरित करता है।


7.संसार का त्याग


सातवें श्लोक में, शंकराचार्य उन धन्य लोगों का वर्णन करते हैं जिन्होंने संसार के बंधनों को अनित्य समझकर ज्ञान की तलवार से उसे काट दिया है। वे संसार के दुःख और मरण-जन्म के चक्र से मुक्त हो गए हैं। यह श्लोक उन साधकों के लिए एक स्पष्ट संदेश है जो संसार के मोह-माया से मुक्त होना चाहते हैं।


8. आत्मानुभव का महत्व


अंतिम श्लोक में, शंकराचार्य उन लोगों की स्तुति करते हैं जिन्होंने आत्मानुभव को प्राप्त कर लिया है। वे शांत, मधुर स्वभाव वाले होते हैं और वन में विचरण करते हुए आत्मा के स्वरूप का चिंतन करते हैं। यह श्लोक साधकों के लिए एक महत्वपूर्ण मार्गदर्शन है जो आत्मज्ञान की खोज में लगे हुए हैं।


9.त्याग और मुक्ति का मार्ग


इस श्लोक में शंकराचार्य उन गुणों का वर्णन करते हैं जो एक व्यक्ति को परमहंस बनने की दिशा में ले जाते हैं, जो मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त कर चुके होते हैं। इस श्लोक में सांसारिक आसक्तियों की तुलना विषैले सर्पों से की गई है, जिन्हें त्यागने से ही आध्यात्मिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है।

  • सामाजिक बंधनों से दूरी: जैसे कोई व्यक्ति विषैले सर्प के साथ नहीं रहना चाहता, वैसे ही एक आत्मज्ञानी व्यक्ति सांसारिक संबंधों और बंधनों से स्वयं को दूर रखता है, जो दुःख का कारण बन सकते हैं।

  • सांसारिक सुखों का त्याग: शंकराचार्य आगे शरीर की तुलना एक सड़ते हुए शव से करते हैं और सांसारिक सुखों को हानिकारक विष के समान मानते हैं। एक सच्चा साधक, जो वैराग्य (विरक्ति) से परिपूर्ण होता है, इन सांसारिक सुखों को क्षणिक और अंततः हानिकारक मानता है, और उन्हें त्यागने की कोशिश करता है।

  • इंद्रियों पर विजय: इस श्लोक में शंकराचार्य कहते हैं कि जो व्यक्ति सांसारिक सुखों को खतरनाक और आत्मविकास के लिए हानिकारक समझता है, वह इंद्रियों और मन के प्रभाव से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह श्लोक उन साधकों के लिए प्रेरणादायक है जो सांसारिक बंधनों को त्याग कर मोक्ष की प्राप्ति करना चाहते हैं।


10. अंतिम बोध


धन्याष्टकम् के अंतिम श्लोक में, शंकराचार्य उस आत्मज्ञानी की दृष्टि का वर्णन करते हैं, जिसने परब्रह्म—अर्थात् परम वास्तविकता—का साक्षात्कार कर लिया है।

  • सर्वत्र दिव्यता का अनुभव: आत्मज्ञानी के लिए, समस्त संसार एक स्वर्ग के समान हो जाता है, जैसे कि यह नंदनवन हो, जहाँ सभी वृक्ष कल्पवृक्ष के समान होते हैं। प्रत्येक जल की बूंद गंगा के समान पवित्र हो जाती है और सभी कर्म पुण्य रूप में देखे जाते हैं।

  • एकीकृत दृष्टि: यह श्लोक एक आत्मज्ञानी की एकीकृत दृष्टि को दर्शाता है। जब कोई परम वास्तविकता का साक्षात्कार करता है, तो सभी भाषाएँ—चाहे वे साधारण हों या परिष्कृत, और सभी शास्त्र—चाहे वे वैदिक हों या अन्य, एक ही सार में विलीन हो जाते हैं। सम्पूर्ण संसार, जिसमें वाराणसी (जो आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है) भी शामिल है, ब्रह्म से ओत-प्रोत दिखता है।

  • द्वैत का अतिक्रमण: यह श्लोक आध्यात्मिक यात्रा के चरम बिंदु का वर्णन करता है जहाँ द्वैत का अतिक्रमण होता है, और साधक यह अनुभव करता है कि सम्पूर्ण सृष्टि परब्रह्म का ही प्रकटीकरण है। इस बोध के साथ भेदभाव समाप्त हो जाते हैं, और साधक को विविधता में एकता का अनुभव होता है।


धन्याष्टकम् श्रीमद् शंकराचार्य की अद्वैत वेदांत पर आधारित एक महत्वपूर्ण रचना है। इसमें शंकराचार्य ने उन धन्य व्यक्तियों की महिमा का वर्णन किया है जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया है और संसार के बंधनों से मुक्त हो गए हैं। यह स्तोत्र साधकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है और आत्मज्ञान की दिशा में मार्गदर्शन करता है। जो लोग इस स्तोत्र का पाठ करते हैं और इसके अर्थ को आत्मसात करते हैं, वे निश्चित रूप से मोक्ष की ओर अग्रसर हो सकते हैं। धन्याष्टकम् का हर श्लोक साधकों के लिए एक नई प्रेरणा लेकर आता है और उन्हें आत्मा की सच्ची पहचान की ओर अग्रसर करता है।


धन्याष्टकम्

(प्रहर्षणीवृत्तम् -)

तज्ज्ञानं प्रशमकरं यदिंद्रियाणांतज्ज्ञेयं यदुपनिषत्सु निश्चितार्थम् ।ते धन्या भुवि परमार्थनिश्चितेहाःशेषास्तु भ्रमनिलये परिभ्रमंतः ॥ 1॥

(वसंततिलकावृत्तम् -)

आदौ विजित्य विषयान्मदमोहराग-द्वेषादिशत्रुगणमाहृतयोगराज्याः ।ज्ञात्वा मतं समनुभूयपरात्मविद्या-कांतासुखं वनगृहे विचरंति धन्याः ॥ 2॥

त्यक्त्वा गृहे रतिमधोगतिहेतुभूताम्आत्मेच्छयोपनिषदर्थरसं पिबंतः ।वीतस्पृहा विषयभोगपदे विरक्ताधन्याश्चरंति विजनेषु विरक्तसंगाः ॥ 3॥

त्यक्त्वा ममाहमिति बंधकरे पदे द्वेमानावमानसदृशाः समदर्शिनश्च ।कर्तारमन्यमवगम्य तदर्पितानिकुर्वंति कर्मपरिपाकफलानि धन्याः ॥ 4॥

त्यक्त्वीषणात्रयमवेक्षितमोक्षमर्गाभैक्षामृतेन परिकल्पितदेहयात्राः ।ज्योतिः परात्परतरं परमात्मसंज्ञंधन्या द्विजारहसि हृद्यवलोकयंति ॥ 5॥

नासन्न सन्न सदसन्न महसन्नचाणुन स्त्री पुमान्न च नपुंसकमेकबीजम् ।यैर्ब्रह्म तत्सममुपासितमेकचित्तैःधन्या विरेजुरित्तरेभवपाशबद्धाः ॥ 6॥

अज्ञानपंकपरिमग्नमपेतसारंदुःखालयं मरणजन्मजरावसक्तम् ।संसारबंधनमनित्यमवेक्ष्य धन्याज्ञानासिना तदवशीर्य विनिश्चयंति ॥ 7॥

शांतैरनन्यमतिभिर्मधुरस्वभावैःएकत्वनिश्चितमनोभिरपेतमोहैः ।साकं वनेषु विजितात्मपदस्वरुपंतद्वस्तु सम्यगनिशं विमृशंति धन्याः ॥ 8॥

(मालिनीवृत्तम् -)

अहिमिव जनयोगं सर्वदा वर्जयेद्यःकुणपमिव सुनारीं त्यक्तुकामो विरागी ।विषमिव विषयान्यो मन्यमानो दुरंतान्जयति परमहंसो मुक्तिभावं समेति ॥ 9॥

(शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् -)

संपूर्णं जगदेव नंदनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमागांगं वरि समस्तवारिनिवहः पुण्याः समस्ताः क्रियाः ।वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरोवाराणसी मेदिनीसर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ॥ 10॥

॥ इति श्रीमद् शंकराचार्यविरचितं धन्याष्टकं समाप्तम् ॥


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