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  • सरयू के तट पर: राजा दशरथ और ऋषि श्रृंगी की कथा

    यह कथा सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या नगरी की है, जहां राजा दशरथ पुत्र न होने के दुःख से व्यथित हैं। उनकी रानी कौशल्या उन्हें महान ऋषि श्रृंगी के पास जाने का सुझाव देती हैं, जो पुत्र कामेष्टि यज्ञ में निपुण हैं और संतान सुख दिलाने में समर्थ हैं। इस यात्रा और यज्ञ के माध्यम से, अयोध्या में चार महान राजकुमारों - राम, लक्ष्मण, भरत, और शत्रुघ्न - का जन्म होता है, जो सूर्य वंश की महिमा को सदा के लिए अमर कर देते हैं। सरयू नदी, जिसे मेगस्थनीज ने 'सोलोमत्तिस' और टालेमी ने 'सोरोबेस' कहा है, यह एक वैदिक कालीन नदी है, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। इसी के किनारे इंद्र ने दो आर्यों का वध किया था। (ऋग्वेद ४.१३.१८ ) रामायण काल में यह नदी अयोध्या से होकर बहती है। दशरथ की अयोध्या नगरी और ऋषि श्रृंगी का आश्रम इसी के तट पर है। यह नदी दशरथ के पुत्र न होने के दुःख की साक्षी है और ऋषि श्रृंगी के प्रयासों की भी।"रानी कौशल्या! प्रतीत होता है, मेरे भाग्य में पुत्र सुख है ही नहीं, मैं अयोध्या की प्रजा से क्या कहूं? कि मैं उनको भावी राजा देने में असमर्थ रहा, मैं अपने पूर्वजों से क्या कहूं कि उनका सूर्य वंश अब अस्त होने वाला है।""नहीं महाराज! आप इस तरह विलाप न करें। एक बार हमें अपने जामात्रा से इस विषय में वार्तालाप कर लेना चाहिए। आप जानते है श्रृंगी पुत्र कामेष्टि यज्ञ में निपुण हैं। वह हमें और अयोध्या की प्रजा को कभी निराश नहीं करेगा।""ऋषि श्रृंगी!" दशरथ आशा भरे शब्दों के साथ कौशल्या को देखते हैं और उनके आश्रम जाने का विचार करते हैं। ऋषि श्रृंगी का आश्रम सूर्यगढ़ा प्रखण्ड में पहाड़ों के बीच स्थित है। यहां की पहाड़ों की चट्टाने शंकु के आकार की है। यह आकर आश्रम तक आते-आते झुक जाते हैं। यहां का सौंदर्य अप्रतिम है। नित्य-प्रतिदिन यज्ञों, मंत्रो और सूक्तों की ध्वनि आश्रम को एक नवीन मूर्त रूप प्रदान करती है। महान ऋषि विभांडक के पुत्र श्रृंगी को एक दिव्य ज्ञान प्राप्त है। वह पुत्र कामेष्टि यज्ञ के द्वारा किसी को भी संतान सुख प्रदान कर सकते हैं। राजा दशरथ पैदल ही अपनी तीनों रानियों के साथ चल पड़ते हैं। शिष्यों को राजा दशरथ के आने की सूचना मिलती है।  "गुरुदेव! महाराज दशरथ हमारे आश्रम पधारे हैं और आप से मिलने की अनुमति चाहते हैं।" दशरथ का नाम सुनते ही ऋषि अपने आसन से उठ कर राजा का स्वागत करते हैं। " कहिए राजन्! कैसे आना हुआ?"ऋषि माता शांता अपनी माता कौशल्या को देखकर अति प्रसन्न होती हैं और दोनों गले लगती हैं। "गुरुदेव! आपसे क्या छुपाना आप हमारे दुःख से भलीभाती परिचित हैं? कई वर्ष बीत गए और अभी तक हमारी प्रजा राजकुमार के सुख से वंचित है।"" ठीक है राजन्! मैं एक ऐसा यज्ञ जानता हूं जिससे आपकी तीनों रानियों को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो सकती है।" राजा यह वचन सुनकर अति हर्षित होते हैं, उन्हें लगता हैं जैसे वह अब इस वंश हीनता के कलंक से मुक्त हो सकेंगे, और अपने सूर्य वंश को आगे बढ़ाने में सहयोग दे सकेंगे। अगले दिन पुत्रकामेष्टि यज्ञ का आयोजन किया जाता है। यह यज्ञ बारह दिनों तक चलता है और एक दिन यज्ञ से अग्नि देव अपने हाथों में खीर का कटोरा लेकर प्रकट होते हैं। "राजन्! हम देवता आपके यज्ञ से अति प्रसन्न हुए। आप यह खीर अपने तीनों रानियों को खिला दीजिए गा। आपको अवश्य ही पुत्रों की प्राप्ती होंगी, ऐसे पुत्र जो इस इक्ष्वाकु वंश को सदैव के लिए अमर कर देंगे।"राजा दशरथ अग्नि देव को प्रणाम करते हैं। ऋषि श्रृंगी खीर ग्रहण करते हैं और उसे रानियों को एक समान बाट कर खाने का आदेश करते हैं। रानियां प्रसन्नता पूर्वक खीर ग्रहण करती हैं। राजा दशरथ हाथ जोड़ कर कहते हैं—"हम आपके बहुत ऋणी हैं, ऋषि श्रृंगी। हमारे यज्ञ को सफल बनाने के लिए आपका बहुत - बहुत धन्यवाद। आश्रम और अयोध्या नगरी में इस समय उत्सव का वातावरण है। समयानुसार अयोध्या में चार राजकुमारों का जन्म होता है। कौशल्या से राम, सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न और कैकेई से भरत का जन्म हुआ।

  • कबीर के दोहे: सरल शब्दों में गहरी सिखावन

    कबीरदास का जीवन सादगी और सेवा का प्रतीक था। उन्होंने भक्ति आंदोलन को नया दृष्टिकोण दिया और अपने समय के सामाजिक और धार्मिक आडंबरों का खुलकर विरोध किया। उनके दोहे और रचनाएं हमें प्रेम, सहिष्णुता, अहंकार रहित जीवन और सच्चाई का मार्ग दिखाते हैं। संत कबीरदास भारतीय संस्कृति के एक महान संत, कवि और समाज सुधारक थे, जिन्होंने अपने दोहों और भजनों के माध्यम से समाज को गहन और सरल जीवन सिखावन प्रदान की। उनका जन्म 15वीं सदी में हुआ था, और उनके जीवन के बारे में कई कहानियां और मिथक प्रचलित हैं। कबीर साहब का जन्म कब हुआ, यह ठीक-ठीक ज्ञात नहीं है। एक मान्यता और कबीर सागर के अनुसार उनका जन्म सन 1398 (संवत 1455), में ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा को ब्रह्ममूहर्त के समय लहरतारा तालाब में कमल पर हुआ था। जहां से नीरू नीमा नामक दंपति उठा ले गए थे । उनकी इस लीला को उनके अनुयायी कबीर साहेब प्रकट दिवस के रूप में मनाते हैं। वे जुलाहे का काम करके निर्वाह करते थे और रामानंद जी इनके गुरु थे। कबीर के दोहे सरल शब्दों में गहरी सिखावन हैं लेकिन उनकी गहराई असाधारण है। उनके अनुसार, ईश्वर की प्राप्ति के लिए किसी विशेष धर्म या कर्मकांड की आवश्यकता नहीं है, बल्कि सच्चे मन से प्रेम और भक्ति ही ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग है। कबीर के दोहों में वेदों, पुराणों और अन्य धार्मिक ग्रंथों की गूढ़ बातों को सरल शब्दों में व्यक्त किया गया है, जिससे आम जनता भी गहन आध्यात्मिकता को समझ सके। कबीरदास, जो एक प्रसिद्ध संत और कवि थे, उन्होंने काव्य के माध्यम से कई महत्वपूर्ण दोहे दिए, वास्तव में ये सारे दोहे, कबीर की बातें, सरल शब्दों में गहरी सिखावन हैं । उनके दोहों में जीवन, समाज और धर्म के बारे में गहन शिक्षाएं छिपी हैं। यहां कुछ प्रसिद्ध दोहे दिए गए हैं: कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारे आपना, चले हमारे साथ।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि मैं बाजार में लुकाठी (आग की मशाल) लेकर खड़ा हूं। जो व्यक्ति अपने अहंकार और मोह-माया को जलाने के लिए तैयार है, वह मेरे साथ चले। बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब मैं दूसरों में बुराई ढूंढने निकला, तो मुझे कोई बुरा व्यक्ति नहीं मिला। लेकिन जब मैंने अपने दिल में झांककर देखा, तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है। साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय। सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि साधु को सूप (अनाज साफ करने वाला) जैसा होना चाहिए, जो सार्थक चीजों को पकड़ लेता है और बेकार को उड़ा देता है। कबीरा तेरी झोंपड़ी, गल कटियन के पास। जो करै सो भरैगा, तू क्यों भया उदास।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि तेरी झोंपड़ी कसाई (गल काटने वाले) के पास है। जो भी कर्म करेगा, वह उसका फल भोगेगा। इसलिए, तू क्यों उदास हो रहा है? पोथी पढ़ि-पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि दुनिया ने बहुत सी किताबें पढ़कर भी पंडित नहीं बन पाई। यदि कोई प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ ले, तो वही सच्चा पंडित हो जाता है।कबीरदास के ये दोहे आज भी समाज में प्रासंगिक हैं और जीवन को सरल, सच्चा और उद्देश्यपूर्ण बनाने की प्रेरणा देते हैं। कबीरदास के दोहों में जीवन की सच्चाइयों और गहरी आध्यात्मिक शिक्षाओं को सरल भाषा में प्रस्तुत किया गया है। अन्य दोहे इस प्रकार हैं: माला फेरत जुग भया, गया न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि माला फेरते-फेरते पूरा जीवन बीत गया, लेकिन मन का फेर (अहंकार और वासनाएं) नहीं बदला। असली सुधार तब होता है जब हम हाथ की माला छोड़कर मन के मोतियों को बदलें। ऐसा कोई न मिले, हमको दे उपदेस। रहिमन ऐसा कौन है, सब दिन रहा न होश।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसा कोई नहीं मिला जो हमें सच्चा उपदेश दे सके। सभी लोग हर समय अपनी समझ में ही रहते हैं। जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहीं। सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माहीं।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि जब तक मेरे भीतर अहंकार था, तब तक ईश्वर का अनुभव नहीं हो सका। जब अहंकार मिट गया, तो मैंने ईश्वर को हर जगह देखा और सारा अंधकार मिट गया। जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होय। यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि इस दुनिया में कोई शत्रु नहीं है, यदि हमारा मन शांत और शीतल हो। अगर हम अपने अहंकार को छोड़ दें, तो सभी लोग दयालु हो जाएंगे। देख पराई चूपड़ी, मत ललचावे जी। तेरे डॉले तीनि में, साईं भरैगा जी।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि दूसरों की संपत्ति देखकर लालच मत करो। तुम्हारे हिस्से में जो भी है, ईश्वर उसे पूर्ण कर देगा। धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय। माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि हे मन, सब कुछ धीरे-धीरे होता है। माली चाहे सौ घड़े पानी डाल दे, लेकिन फल तो ऋतु आने पर ही लगेगा। तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँवन तर होय। कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।। भावार्थ: कबीर कहते हैं कि कभी भी छोटे और कमजोर व्यक्ति की निंदा मत करो। हो सकता है कि वह तिनका आपके पैर के नीचे हो, लेकिन अगर वही तिनका उड़कर आँख में पड़ जाए, तो बहुत पीड़ा होगी। कबीर के ये दोहे हमें सच्चाई, ईमानदारी, सहिष्णुता और आध्यात्मिकता का पाठ पढ़ाते हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं। कबीर का प्रभाव आज भी व्यापक है। उनके विचार और शिक्षाएं न केवल भारत में बल्कि विश्वभर में लोगों को प्रेरित करती हैं। उनकी सादगी और सच्चाई भरे दोहे सदियों से जनमानस को मार्गदर्शन देते आ रहे हैं और भविष्य में भी देते रहेंगे।

  • लहसुन के औषधीय गुण: आयुर्वेद की नजर में

    लहसुन (Garlic) के स्वास्थ्य लाभ असंख्य हैं और इसके नियमित सेवन से कई बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव संभव है। यह न केवल हृदय स्वास्थ्य को बेहतर बनाता है बल्कि रक्तचाप और कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने में भी सहायक है। इसके एंटीऑक्सीडेंट, एंटीबैक्टीरियल और एंटीवायरल गुण प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करते हैं और संक्रमण से बचाव करते हैं। पाचन तंत्र में सुधार, सूजन और दर्द में राहत, और कैंसर निरोधक गुण इसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्राकृतिक औषधि बनाते हैं। लहसुन के नियमित उपयोग से आप अपनी संपूर्ण स्वास्थ्य को सुधार सकते हैं और कई गंभीर बीमारियों से बच सकते हैं। लहसुन (Garlic) एक महत्वपूर्ण मसाला और औषधीय पौधा है जो भारतीय रसोई में खास स्थान रखता है। इसका वैज्ञानिक नाम Allium sativum है। लहसुन का उपयोग केवल खाने में स्वाद और सुगंध बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि इसके औषधीय गुणों के लिए भी किया जाता है। इसका इतिहास बहुत पुराना है और इसे कई संस्कृतियों में उच्च मूल्य दिया गया है।लहसुन की मुख्य विशेषता इसका तेज गंध और स्वाद है, जो इसमें उपस्थित सल्फर यौगिकों, विशेष रूप से ऐलिसिन, के कारण होता है। ऐलिसिन लहसुन का सबसे महत्वपूर्ण सक्रिय यौगिक है, जो इसे अनेक स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। उत्पत्ति और इतिहास : लहसुन का मूल स्थान मध्य एशिया माना जाता है। यह प्राचीन मिस्र, यूनान, रोम और चीन जैसी सभ्यताओं में भी व्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। इसे प्राचीन मिस्र के पिरामिडों के निर्माण के समय मजदूरों को खाने में दिया जाता था ताकि उनकी सहनशक्ति बढ़े। आधुनिक उपयोग : आज के समय में, लहसुन का उपयोग दुनिया भर में भोजन में स्वाद और सुगंध जोड़ने के लिए किया जाता है। साथ ही, इसके औषधीय गुणों के कारण इसे कई स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार में भी शामिल किया जाता है। लहसुन का सेवन कच्चा, पका हुआ, पाउडर के रूप में, या तेल और पूरक के रूप में किया जा सकता है। संक्षेप में, लहसुन एक बहुमूल्य पौधा है जो न केवल भोजन में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, बल्कि स्वास्थ्य के लिए भी अत्यधिक लाभकारी है। इसके नियमित सेवन से विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं से बचाव और उपचार संभव है। आयुर्वेद में लहसुन (Garlic) को एक महत्वपूर्ण औषधि माना गया है। इसे 'रसोना' के नाम से भी जाना जाता है। आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में लहसुन का उपयोग अनेक बीमारियों और स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार में किया जाता है। यहाँ कुछ प्रमुख उपयोगिताएँ दी गई हैं: पाचन तंत्र में सुधार : लहसुन को पाचन के लिए अत्यधिक लाभकारी माना जाता है। यह गैस, अपच और पेट की अन्य समस्याओं को कम करने में मदद करता है। हृदय स्वास्थ्य: आयुर्वेद के अनुसार, लहसुन रक्त को शुद्ध करता है और रक्तचाप को नियंत्रित करने में सहायक है। यह रक्त प्रवाह को सुधारता है और हृदय रोगों के जोखिम को कम करता है। संक्रमण और प्रतिरक्षा प्रणाली: लहसुन में एंटीबैक्टीरियल, एंटीवायरल और एंटीफंगल गुण होते हैं, जो शरीर को विभिन्न प्रकार के संक्रमणों से बचाते हैं। यह प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत करता है। सूजन और दर्द: लहसुन का उपयोग सूजन और दर्द को कम करने के लिए किया जाता है। इसमें प्राकृतिक एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण होते हैं जो जोड़ों के दर्द और अन्य सूजन संबंधित समस्याओं में राहत देते हैं। श्वसन तंत्र के लिए : लहसुन का उपयोग श्वसन संबंधी समस्याओं जैसे कि खांसी, जुकाम, ब्रोंकाइटिस और अस्थमा के उपचार में किया जाता है। यह बलगम को पतला करता है और श्वसन मार्ग को साफ करता है। त्वचा और बालों के लिए: लहसुन का उपयोग त्वचा के संक्रमण, फोड़े-फुंसी और अन्य त्वचा रोगों के उपचार में किया जाता है। यह बालों के झड़ने को कम करने और उनके स्वास्थ्य को सुधारने में भी सहायक है। डायबिटीज में: लहसुन का सेवन रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने में मदद करता है, जिससे डायबिटीज के मरीजों को लाभ होता है।कैंसर निरोधक गुण:कुछ आयुर्वेदिक मान्यताओं के अनुसार, लहसुन में कैंसर निरोधक गुण होते हैं जो शरीर में कैंसर कोशिकाओं के विकास को रोकने में सहायक होते हैं। उपयोग की विधि: आयुर्वेद में लहसुन को विभिन्न रूपों में उपयोग किया जाता है, जैसे कि कच्चा, पका हुआ, पाउडर, या तेल। इसे विभिन्न आयुर्वेदिक उपचारों में अन्य जड़ी-बूटियों और सामग्री के साथ मिलाकर उपयोग किया जा सकता है।लहसुन का सेवन किसी भी आयुर्वेदिक उपचार के हिस्से के रूप में करने से पहले हमेशा किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह लेना महत्वपूर्ण है, ताकि व्यक्तिगत स्वास्थ्य स्थितियों के अनुसार उचित मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सके। लहसुन का अचार बना करके भी हम उसके गुणों का लाभ उठा सकते हैं— लहसुन का अचार एक स्वादिष्ट और स्वास्थ्यवर्धक विकल्प है जो आपके भोजन में अतिरिक्त स्वाद और पोषण जोड़ सकता है। यहाँ एक सरल और पारंपरिक लहसुन के अचार की रेसिपी दी गई है: सामग्री: 250 ग्राम लहसुन की कलियाँ (छिली हुई)1/2 कप सरसों का तेल2 बड़े चम्मच लाल मिर्च पाउडर1 बड़ा चम्मच हल्दी पाउडर1 बड़ा चम्मच सौंफ (फेनेल) पाउडर1 बड़ा चम्मच धनिया (कोरिएंडर) पाउडर1 बड़ा चम्मच मेथी (फेनुग्रीक) दाने1 बड़ा चम्मच नमक (स्वादानुसार)1 बड़ा चम्मच सरसों (मस्टर्ड) दाने1/2 कप सिरका (विनेगर) विधि: लहसुन तैयार करना:सबसे पहले, लहसुन की कलियों को छील लें और अच्छी तरह से धो लें। इन्हें सूखे कपड़े से पोंछकर पूरी तरह सूखा लें।मसाला तैयार करना:एक पैन में सरसों के दाने और मेथी के दाने को हल्का सा भून लें। इसके बाद इन्हें ठंडा होने दें और फिर दरदरा पीस लें। तेल गरम करना:एक कढ़ाई में सरसों का तेल गरम करें जब तक कि वह धुआँ छोड़ने लगे। फिर आँच को बंद कर दें और तेल को थोड़ा ठंडा होने दें। मसाले मिलाना: गरम तेल में लाल मिर्च पाउडर, हल्दी पाउडर, सौंफ पाउडर, धनिया पाउडर और पिसे हुए मेथी-सरसों के दाने डालें। अच्छी तरह मिलाएँ। लहसुन मिलाना: इस मसाले वाले तेल में लहसुन की कलियाँ डालें और अच्छी तरह मिलाएँ ताकि सारी कलियाँ मसाले में अच्छी तरह लिपट जाएँ। सिरका डालना: अब इसमें सिरका डालें और फिर से अच्छी तरह मिलाएँ। अचार को सानना: मिश्रण को एक सूखे और साफ काँच के जार में भरें। जार को अच्छी तरह बंद कर दें और 2-3 दिन धूप में रखें। दिन में एक बार जार को हिला लें ताकि मसाले और तेल लहसुन पर समान रूप से फैले रहें टिप्स : लहसुन का अचार बनाते समय साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें ताकि अचार में फंगस या बैक्टीरिया न लगें।अचार को अधिक समय तक सुरक्षित रखने के लिए उसे हमेशा सूखे चम्मच से निकालें।लहसुन का अचार एक महीने तक धूप में रखने के बाद अधिक स्वादिष्ट हो जाता है।यह लहसुन का अचार आपके खाने में एक तीखा और स्वादिष्ट परिवर्धन करेगा और इसके स्वास्थ्यवर्धक गुण भी आपके लिए लाभकारी होंगे।

  • ध्यान का जादू और मुक्ति: तनाव से आत्म-साक्षात्कार तक

    ध्यान हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह हमारे जीवन में शांति, संतुलन और आत्म-साक्षात्कार लाने में सहायक है। प्राचीन भारतीय ग्रंथों जैसे योगसूत्र, भगवद गीता, और वेदों में ध्यान का व्यापक वर्णन मिलता है, जो इसके महत्व को दर्शाता है। विपश्यना, मंत्र ध्यान, ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, और चक्र ध्यान जैसे विभिन्न प्रकार के ध्यान हमें मानसिक शांति, भावनात्मक संतुलन, और शारीरिक स्वास्थ्य प्रदान करते हैं। नियमित ध्यान से न केवल तनाव कम होता है, बल्कि यह आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में भी मार्गदर्शन करता है, जिससे हमारा जीवन अधिक सुखद और सार्थक बनता है। ध्यान का जादू और मुक्ति से आज कल हम सभी परिचित हैं। न केवल हमारे मानसिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमारे सम्पूर्ण जीवन को भी परिवर्तित कर सकता है। ध्यान का प्राचीन इतिहास है, विशेषकर भारतीय सभ्यता में, जहाँ इसे योग का अभिन्न अंग माना जाता है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपने मानसिक और भावनात्मक स्तर को सुधार सकता है, बल्कि यह आत्म-साक्षात्कार की ओर भी एक मार्गदर्शक हो सकता है। ध्यान का अर्थ है मन को एकाग्र करना और अपने विचारों पर नियंत्रण पाना। यह एक अभ्यास है जिसमें व्यक्ति अपने मन को शांत करके अपने अंतरंग स्वरूप को समझने की कोशिश करता है। ध्यान करने से मन शांत होता है और व्यक्ति अपने आत्मा के साथ जुड़ने का अनुभव करता है। ध्यान का अभ्यास करने से व्यक्ति का ध्यान विकसित होता है और उसकी सोचने की क्षमता में सुधार होता है। यह उसे स्वयं को और अपने आसपास को बेहतर ढंग से समझने में मदद करता है। ध्यान करने से व्यक्ति का स्वास्थ्य भी सुधरता है और उसका जीवन सकारात्मक दिशा में बदलने लगता है। ध्यान का महत्त्व ध्यान का महत्व वर्तमान समय में और भी अधिक हो गया है। आजकल की भागदौड़ भरी जिंदगी में, तनाव और मानसिक अस्थिरता ने हमारे जीवन को जकड़ रखा है। इसलिए, ध्यान का अभ्यास करना और इसे अपनाना अत्यंत महत्वपूर्ण है। ध्यान हमें शांति और संतुलन प्रदान करता है, जिससे हम अपने जीवन के हर पहलू में सुधार कर सकते हैं। ध्यान के अभ्यास से व्यक्ति को अपने आप को समझने का मौका मिलता है और उसे अपने आप में स्थिरता की भावना होती है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने भीतर की शांति और शक्ति को पहचानता है। यह उसे अपने अंतरंग संघर्षों से निपटने की क्षमता प्रदान करता है और जीवन के साथ एक दृष्टिकोण को विकसित करने में मदद करता है। ध्यान व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को सुधारने में भी मदद करता है और उसे एक सकारात्मक और उत्साही जीवन जीने की प्रेरणा देता है। ध्यान के प्रकार ध्यान के कई प्रकार हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं: 1. विपश्यना ध्यान विपश्यना ध्यान एक प्राचीन ध्यान तकनीक है जो भगवान बुद्ध द्वारा प्रतिपादित की गई थी। इसका उद्देश्य व्यक्ति को उसकी वास्तविकता का गहराई से अनुभव कराना है। इस ध्यान विधि में व्यक्ति अपने श्वास पर ध्यान केंद्रित करता है और शरीर की संवेदनाओं का निरीक्षण करता है, बिना किसी प्रतिक्रिया के। इस प्रक्रिया से मन की अशांति और विक्षेप धीरे-धीरे कम होते हैं और व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन मिलता है। विपश्यना ध्यान से मानसिक स्पष्टता, भावनात्मक संतुलन और आत्म-नियंत्रण में सुधार होता है। यह ध्यान विधि न केवल आंतरिक शांति और संतुलन प्रदान करती है, बल्कि यह व्यक्ति को जीवन के प्रति एक गहरे और अधिक सार्थक दृष्टिकोण से भी अवगत कराती है। 2. मंत्र ध्यान मंत्र ध्यान का अर्थ है मन्त्र के माध्यम से ध्यान लगाना। यह ध्यान का इस प्रकार है कि जिसमें व्यक्ति एक विशेष मंत्र का जाप करते समय मन को एकाग्र करता है। मंत्र का उच्चारण या मन में दोहराना ध्यान की गहराई में ले जाता है और मन को शांत करता है। जब व्यक्ति मंत्र के जाप के माध्यम से अपने मन को नियंत्रित करता है, तो उसकी मानसिक अशांति दूर होती है। इस प्रक्रिया से मन की चंचलता कम होती है और व्यक्ति आंतरिक शांति का अनुभव करता है। मंत्र जाप के द्वारा व्यक्ति ध्यान में मन को उच्च स्तर पर ले जाता है और शनैः शनैः शक्ति और स्थिरता विकसित होने लगती है। मंत्र ध्यान की प्रभावशाली ताकत यह है कि यह व्यक्ति को अपने आत्मा के साथ जोड़ने में मदद करता है और उसे अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव करने की क्षमता प्रदान करता है। इस तरह, मंत्र ध्यान एक आंतरिक साधना है जो मानव जीवन की गहराइयों में जाने का माध्यम बनता है। 3. ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन, जिसे टीएम भी कहा जाता है, एक सरल और प्रभावी ध्यान तकनीक है, जिसमें व्यक्ति किसी विशेष मंत्र का मानसिक उच्चारण करता है। यह ध्यान विधि महर्षि महेश योगी द्वारा विकसित की गई थी और इसका उद्देश्य मानसिक शांति, तनाव मुक्ति और आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करना है। टीएम का अभ्यास दिन में दो बार, 15-20 मिनट के लिए किया जाता है, जिससे मन गहरे विश्राम की अवस्था में पहुंचता है। इस तकनीक से मानसिक और शारीरिक तनाव कम होता है, मस्तिष्क की कार्यक्षमता बढ़ती है, और समग्र स्वास्थ्य में सुधार होता है। ट्रांसेंडेंटल मेडिटेशन व्यक्ति को गहरे ध्यान में ले जाकर आंतरिक शांति और संतुलन प्रदान करता है, जिससे जीवन के हर पहलू में सकारात्मक बदलाव आते हैं। 4. चक्र ध्यान चक्र ध्यान एक प्राचीन योगिक विधि है जिसमें व्यक्ति अपने शरीर के सात प्रमुख ऊर्जा केंद्रों, जिन्हें चक्र कहा जाता है, पर ध्यान केंद्रित करता है। ये चक्र मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, और सहस्रार चक्र के रूप में जाने जाते हैं। चक्र ध्यान के दौरान, व्यक्ति प्रत्येक चक्र पर ध्यान केंद्रित करके उनकी ऊर्जा को जागृत और संतुलित करता है। यह ध्यान विधि न केवल ऊर्जा प्रवाह में सुधार करती है बल्कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक संतुलन भी प्रदान करती है। चक्र ध्यान से व्यक्ति की आंतरिक शक्ति बढ़ती है, आत्म-जागरूकता में वृद्धि होती है, और वह अपने जीवन में अधिक शांति और संतोष का अनुभव करता है। ध्यान का जादू और मुक्ति ध्यान के अनेक लाभ होते हैं, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं: मानसिक लाभ तनाव में कमी : ध्यान करने से व्यक्ति के मन में शांति और संतुलन आता है, जिससे तनाव कम होता है। ध्यान से मानसिक तनाव दूर होता है और मन शांत रहता है। मस्तिष्क की शांति : ध्यान मस्तिष्क को शांत और स्थिर करता है, जिससे व्यक्ति की सोचने और निर्णय लेने की क्षमता में सुधार होता है। इससे व्यक्ति के मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ती है और वह अधिक रचनात्मक और प्रोडक्टिव बनता है। भावनात्मक संतुलन : ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने भावों को नियंत्रित कर सकता है, जिससे वह अधिक स्थिर और संतुलित रहता है। ध्यान से भावनात्मक संतुलन बना रहता है और व्यक्ति अधिक धैर्यवान और सहनशील बनता है। शारीरिक लाभ रक्तचाप में कमी : नियमित ध्यान से व्यक्ति का रक्तचाप नियंत्रित रहता है। ध्यान से रक्तसंचार में सुधार होता है और हृदय स्वस्थ रहता है। प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि : ध्यान से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि होती है, जिससे व्यक्ति कम बीमार पड़ता है। ध्यान से इम्यून सिस्टम मजबूत होता है और शरीर बीमारियों से लड़ने के लिए अधिक सक्षम बनता है। नींद में सुधार : ध्यान से नींद की गुणवत्ता में सुधार होता है, जिससे व्यक्ति अधिक ताजगी और ऊर्जा महसूस करता है। ध्यान से अनिद्रा की समस्या दूर होती है और व्यक्ति गहरी और शांतिपूर्ण नींद लेता है। आत्मिक लाभ आत्म-साक्षात्कार : ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर हो सकता है। ध्यान से आत्मा की शुद्धि होती है और व्यक्ति अपने जीवन के उच्चतम उद्देश्यों को समझता है। उन्नति : ध्यान व्यक्ति को आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाता है, जिससे वह अधिक जागरूक और जाग्रत महसूस करता है। ध्यान से व्यक्ति की आत्मिक उन्नति होती है और वह अपने जीवन में शांति और संतोष प्राप्त करता है। ध्यान की विधि ध्यान करने की विधि सरल है, लेकिन इसे नियमितता और धैर्य की आवश्यकता होती है। ध्यान करने के कुछ सरल कदम निम्नलिखित हैं: शांत स्थान का चयन : ध्यान के लिए एक शांत और सुगम स्थान का चयन करें जहाँ कोई व्यवधान न हो। ऐसा स्थान चुनें जहाँ आप आराम से बैठ सकें और कोई शोरगुल न हो। आरामदायक स्थिति : किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठें, जैसे कि पद्मासन या सुखासन। ध्यान करते समय शरीर को आरामदायक स्थिति में रखना जरूरी है ताकि आप लंबे समय तक ध्यान कर सकें। श्वास पर ध्यान केंद्रित : अपनी श्वास पर ध्यान केंद्रित करें और धीरे-धीरे गहरी श्वास लें। श्वास पर ध्यान केंद्रित करने से मन स्थिर होता है और विचारों की अशांति कम होती है। विचारों का निरीक्षण : अपने विचारों का निरीक्षण करें, उन्हें आने और जाने दें, लेकिन उनसे चिपकें नहीं। ध्यान करते समय विचार आना स्वाभाविक है, लेकिन उन्हें जाने दें और श्वास पर ध्यान केंद्रित करें। ध्यान की अवधि : प्रारंभ में 10-15 मिनट का ध्यान करें और धीरे-धीरे इस अवधि को बढ़ाएं। ध्यान की अवधि धीरे-धीरे बढ़ाने से ध्यान की गहराई में वृद्धि होती है और व्यक्ति अधिक शांति अनुभव करता है। ध्यान के प्राचीन ग्रंथ ध्यान के महत्व को हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी वर्णित किया गया है। योगसूत्र, भगवद गीता, और वेदों में ध्यान का विशेष महत्व बताया गया है। इन ग्रंथों के अनुसार, ध्यान आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है। योगसूत्र पतंजलि द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें योग और ध्यान के महत्व को विस्तार से वर्णित किया गया है। पतंजलि के अनुसार, ध्यान के माध्यम से व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकता है। भगवद गीता भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ध्यान का महत्व समझाया है। गीता के अनुसार, ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन और आत्मा को शुद्ध कर सकता है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वेदों में ध्यान का विशेष महत्व बताया गया है। वेदों के अनुसार, ध्यान आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है और जीवन के उच्चतम उद्देश्यों को समझ सकता है। योगसूत्र योगसूत्र पतंजलि द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें योग और ध्यान के महत्व को विस्तार से वर्णित किया गया है। पतंजलि के अनुसार, ध्यान के माध्यम से व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार की ओर अग्रसर हो सकता है। पतंजलि के योगसूत्रों में ध्यान (धारणा और ध्यान) का महत्व निम्नलिखित सूत्रों के माध्यम से स्पष्ट किया गया है: योगसूत्र 1.2: "योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः""योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है।" योगसूत्र 1.3: "तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्""तब द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है।" योगसूत्र 2.29: "यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि""यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग के आठ अंग हैं।" भगवद गीता भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ध्यान का महत्व समझाया है। गीता के अनुसार, ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने मन और आत्मा को शुद्ध कर सकता है और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ध्यान का महत्व समझाते हुए कई उपदेश दिए हैं: भगवद गीता 6.6 : "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥""व्यक्ति को स्वयं के द्वारा ही स्वयं का उद्धार करना चाहिए, स्वयं को अधोगति में नहीं डालना चाहिए। क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा ही आत्मा का शत्रु है।" भगवद गीता 6.10 : "योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥""योगी को सदा ही आत्म-संयम में स्थिर रहकर, एकांत में स्थित होकर, मन और आत्मा को संयमित रखते हुए ध्यान में लीन रहना चाहिए।" भगवद गीता 6.19 : "यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥""जैसे बिना हवा के स्थान में स्थित दीपक की लौ नहीं हिलती, उसी प्रकार योगी का मन आत्मा के योग में लीन रहते हुए स्थिर रहता है।" वेद और उपनिषद वेदों में ध्यान का विशेष महत्व बताया गया है। वेदों के अनुसार, ध्यान आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है। ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकता है और जीवन के उच्चतम उद्देश्यों को समझ सकता है। वेदों में ध्यान और ध्यान के माध्यम से आत्मा की शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति का वर्णन मिलता है: ऋग्वेद 10.129.1 : "नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।""सृष्टि के आरंभ में न सत्य था, न असत्य था, न आकाश था और न परम व्योम था।" श्वेताश्वतरोपनिषद् 8.18 "यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै। तह देवंआत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये॥ निष्कलं निष्क्रिय शान्तं निरवद्यं निरञ्जनम्‌। अमृतस्य पर सेतुं दग्धेन्दनमिवानलम्‌॥" जो पहले ही ब्रह्म को जानने वाला है और जो वेदों का ज्ञान दूसरों को प्रदान करता है, उस देव को, जो आत्मा और बुद्धि का प्रकाशक है, मुक्ति की इच्छुकता वाला मैं उसकी शरण में जाताहूँ॥" यजुर्वेद 40.4 : "अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन् पूर्वमर्षत्।""वह एक अद्वितीय है, जो स्थिर है, मन से भी तीव्र है। देवगण उसे प्राप्त नहीं कर सकते क्योंकि वह उनसे पहले ही पहुंच जाता है।" अथर्ववेद 32.1 : "यत्रोपासते स्वतेजो जायते।""जहां व्यक्ति उपासना करता है, वहां उसकी अपनी ज्योति उजागर होती है।" इन उद्धरणों के माध्यम से हम देख सकते हैं कि योगसूत्र, भगवद गीता, और वेदों में ध्यान और आत्म-साक्षात्कार का कितना महत्व है। ध्यान व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और आध्यात्मिक उन्नति की दिशा में मार्गदर्शन करता है। ध्यान जीवन का एक ऐसा अमूल्य अंग है, जो न केवल हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारता है, बल्कि हमें आत्म-साक्षात्कार की ओर भी ले जाता है। जीवन की भागदौड़ और तनाव भरे माहौल में, ध्यान एक मार्गदर्शक की तरह कार्य करता है, जो हमें शांति, संतुलन और संतुष्टि प्रदान करता है। यदि हम अपने दैनिक जीवन में ध्यान को शामिल करें, तो निस्संदेह हमारा जीवन अधिक सुखद और सार्थक बन सकता है। ध्यान का अभ्यास हमारे जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकता है। यह हमारे मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारता है, हमें आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है, और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करता है। ध्यान का नियमित अभ्यास हमें जीवन में संतुलन, शांति और संतोष प्रदान करता है, जिससे हमारा जीवन अधिक सार्थक और सुखद बनता है।

  • अवतारवाद: भारतीय धार्मिक परंपरा का गहन सिद्धांत

    अवतारवाद भारतीय धार्मिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, विशेषकर हिंदू सनातन धर्म में। यह सिद्धांत मानता है कि दिव्य सत्ता या भगवान समय-समय पर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। भागवत और महाभारत के अनुसार, अवतारों का उद्देश्य धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करना है। पाँचरात्र मत में अवतारों के चार प्रमुख प्रकार (व्यूह, विभव, अंतर्यामी, अर्यावतार) बताए गए हैं। अवतारों की संख्या और संज्ञा में समय के साथ पर्याप्त विकास हुआ है। अवतारवाद का यह गहन सिद्धांत धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, जो मानवता को नैतिक और धार्मिक मार्ग पर प्रेरित करता है। अवतारवाद भारतीय धार्मिक परंपरा में एक महत्वपूर्ण और गहरा सिद्धांत है, खासकर हिंदू सनातन धर्म में। यह विचार कि दिव्य सत्ता या भगवान समय-समय पर पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, हिंदू धर्म के विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में व्यापक रूप से वर्णित है। आज हम अवतारवाद के विभिन्न पहलुओं को समझने का प्रयास करेंगे और यह विचार करेंगे कि क्या यह अवधारणा वास्तव में संभव है। अवतारवाद: भारतीय धार्मिक परंपरा का गहन सिद्धांत अवतारवाद का अर्थ अवतार शब्द बना है "अव" उपसर्ग और "तृ" धातु से। "अव" का अर्थ है नीचे की तरफ और "तृ" का अर्थ है पार करना। अवतार का अर्थ है "ऊपर से नीचे आना" यानी एक दिव्य शक्ति या देवता का अपने ऊंचे स्थान से नीचे, मनुष्य लोक में आना। संस्कृत में 'अवतार' का अर्थ है 'उतरना' या 'अवतरण'। धार्मिक संदर्भ में, यह वह प्रक्रिया है जिसमें भगवान किसी विशेष उद्देश्य की पूर्ति के लिए मानव या किसी अन्य रूप में पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। हिंदू धर्म में अवतारवाद पुराणों में अवतारवाद का वर्णन अवतारवाद: भारतीय धार्मिक परंपरा का गहन सिद्धांत है। पुराणों में अवतारवाद का विस्तृत तथा व्यापक वर्णन मिलता है। भागवत के अनुसार, सत्वनिधि हरि के अवतारों की गणना नहीं की जा सकती। जिस प्रकार न सूखनेवाले (अविदासी) तालाब से हजारों छोटी-छोटी नदियाँ (कुल्या) निकलती हैं, उसी प्रकार अक्षरय्य सत्वाश्रय हरि से भी नाना अवतार उत्पन्न होते हैं: "अवतारा हासंख्येया हरे: सत्वनिधेद्विजा:। यथाऽविदासिन: कुल्या: सरस: स्यु: सहस्रश:।" पाँचरात्र मत में अवतार प्रधानत: चार प्रकार के होते हैं- व्यूह (संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध), विभव, अंतर्यामी तथा अर्यावतार । विष्णु के अवतारों की संख्या २४ मानी जाती है (श्रीमद्भागवत २.६), परंतु दशावतार की कल्पना नितांत लोकप्रिय है जिनकी प्रख्यात संज्ञा इस प्रकार है: जल अवतार : मत्स्य तथा कच्छप। जलथल अवतार : वराह तथा नृसिंह। वामन : खर्व। दो राम : परशुराम, रघुनन्दन राम। श्रीकृष्ण , बुद्ध  (सकृप:), तथा कल्कि  (अकृप:)। हिंदू धर्म में भगवान विष्णु के दस अवतार (दशावतार) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। ये अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए जाने जाते हैं। यह मान्यता है कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब भगवान किसी रूप में अवतरित होकर मानवता की रक्षा करते हैं। मत्स्य अवतार : भगवान विष्णु का मछली रूप। कूर्म अवतार : कच्छप रूप में विष्णु। वराह अवतार : वराह (सूअर) रूप। नृसिंह अवतार : आधा मानव, आधा सिंह। वामन अवतार : बौना ब्राह्मण। परशुराम अवतार : योद्धा ऋषि। राम अवतार : रामायण के नायक। कृष्ण अवतार : महाभारत के प्रमुख पात्र। बुद्ध अवतार : बुद्ध। कल्कि अवतार : भविष्य में आने वाला अवतार। अवतारों के भेद अवतारों के विभिन्न भेद हैं: पुरुषावतार गुणावतार कल्पावतार मन्वंतरावतार युगावतार स्वल्पावतार लीलावतार कहीं-कहीं आवेशावतार आदि की भी चर्चा मिलती है, जैसे परशुराम। इस प्रकार अवतारों की संख्या तथा संज्ञा में पर्याप्त विकास हुआ है। उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि अवतार वस्तुत: परमेश्वर का वह आविर्भाव है जिसमें वह किसी विशेष उद्देश्य को लेकर किसी विशेष रूप में, किसी विशेष देश और काल में, लोकों में अवतरण करता है। अवतारवाद भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपरा का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जो वेदों और पुराणों में गहरे रूप में वर्णित है। अवतार के प्रकार पूर्ण अवतार : जैसे श्री राम और श्री कृष्ण, जिनमें ईश्वर की पूरी शक्ति प्रकट होती है। अंश अवतार : जैसे हनुमान जी और परशुराम, जो ईश्वर के कुछ अंश से बने हैं। अवतार की आवश्यकता अवतार की आवश्यकता धर्म की रक्षा, अधर्म का नाश, और मानवता को नैतिकता और धार्मिकता के मार्ग पर प्रेरित करने के लिए होती है। जब-जब धर्म का पतन और अधर्म का उदय होता है, तब ईश्वर स्वयं विभिन्न रूपों में अवतरित होकर संतुलन स्थापित करते हैं। भगवद गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का बढ़ावा होता है, तब-तब मैं अपने रूप को धारण करके आता हूँ। अवतारों का उद्देश्य केवल धार्मिक नियमों की स्थापना और पापियों का नाश करना ही नहीं है, बल्कि साधु-संतों की रक्षा और भक्तों को सही मार्ग दिखाना भी है। उदाहरण के लिए, भगवान राम और कृष्ण के अवतारों ने न केवल राक्षसों का नाश किया, बल्कि समाज में धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना भी की। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अवतारों का प्राकट्य अनिवार्य हो जाता है, जिससे समाज में संतुलन, शांति और नैतिकता बनी रहे। अवतारवाद के पक्ष में तर्क धार्मिक ग्रंथों में प्रमाण: हिंदू धर्म के विभिन्न ग्रंथों जैसे भगवद गीता, महाभारत, रामायण और पुराणों में अवतारों का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये ग्रंथ अवतारवाद के सिद्धांत को मजबूत आधार प्रदान करते हैं।अधर्म का नाश और धर्म की स्थापना भगवद गीता के श्लोक 4.7-8 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं: "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥" "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥ " इसका अर्थ है, जब-जब धर्म का पतन होता है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं अपने रूप को धारण करके आता हूँ। साधुओं की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में अवतरित होता हूँ। यह तर्क अवतारवाद की आवश्यकता को स्पष्ट करता है कि जब अधर्म बढ़ता है और संसार में असंतुलन होता है, तब ईश्वर अवतार लेकर इस असंतुलन को समाप्त करते हैं। धार्मिक और नैतिक उद्देश्य: अवतार का उद्देश्य केवल धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करना नहीं है, बल्कि नैतिकता और मानवता को सही दिशा में प्रेरित करना भी है। तुलसीदस ने भी राम चरित मानस में कहा है: "जब-जब होइ धरम के हानि, बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी। करहिं अनीति जयें नहिं रघुनाथा, सजहिं कृपा करी हरि अवतारा॥ " जब-जब धर्म की हानि होती है और असुर, अधम, अभिमानी बढ़ते हैं, जब नीति नहीं रहती, तब भगवान कृपा कर अवतार लेते हैं। भक्तों का अनुभव: कई भक्तों और संतों ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों में अवतारों के दर्शन और उनकी कृपा का वर्णन किया है। यहाँ कुछ प्रमुख उद्धरण दिए गए हैं जो इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं: मीरा बाई जी कहती हैं: "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो। वस्तु अमोलक दी मेरे सतगुरु, किरपा कर अपनायो॥ " मैंने राम रतन धन पाया। मेरे सतगुरु ने कृपा करके यह अमूल्य वस्तु मुझे दी। कबीरदास जी: दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय । जो सुख में सुमिरन करे, दुख कहे को होय ।। कबीर दास जी कहते हैं की दु :ख में तो परमात्मा को सभी याद करते हैं लेकिन सुख में कोई याद नहीं करता। जो इसे सुख में याद करे तो फिर दुख हीं क्यों हो । । संत तुकाराम: " हेची दान देगा देवा तुझा विसर न व्हावा। गजेंद्रासि संकट आले, तरी धावुनि गेला हरि॥" हे भगवान, मुझे ऐसा वरदान दें कि मैं आपको कभी न भूलूँ। जैसे गजेंद्र पर संकट आने पर भगवान विष्णु ने दौड़कर उसकी रक्षा की। संत रविदास: "प्रभु जी तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी। प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥" हे प्रभु, आप चंदन हैं और मैं पानी हूँ, आपकी सुगंध मेरे हर अंग में समा गई है। हे प्रभु, आप बादल हैं और मैं मोर हूँ, जैसे चकोर चंद्रमा को देखता है, वैसे ही रविदास भी आप को निहारता है। सूरदास: "मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ। मोसौं कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ? कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात। पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात॥॥" श्रीकृष्ण कहते हैं, “मैया! दाऊ दादा ने मुझे बहुत चिढ़ाया है। मुझसे कहते हैं “तुझे मोल लिया हुआ है, यशोदा मैया ने भला तुझे कब जन्म दिया। क्या करूँ, इसी क्रोध के मारे मैं खेलने नहीं जाता। वे बार-बार कहते हैं “तेरी माता कौन है? तेरे पिता कौन हैं?... संत एकनाथ: "जगदंबा पार्वती माय, तुझा बाल मी तुजवीण कोणा। कृपाशील हृदयां कृपावीण कैचा, वसे माता श्रीनाथाचा॥" जगदंबा पार्वती माँ, मैं तेरा बालक हूँ, तेरे बिना कौन है मेरा। कृपाशील हृदय में कृपा के बिना क्या है, माँ श्रीनाथ जी का वास है। रामकृष्ण परमहंस: "जो भक्त एक बार भगवान का नाम लेकर बुलाते हैं, भगवान उनकी सुनते हैं और उन पर कृपा करते हैं।" इसप्रकार हम देखते हैं कि भक्तों और संतों ने अपने व्यक्तिगत अनुभवों में अवतारों के दर्शन और उनकी कृपा का वर्णन किया है। उनके अनुभव हमें यह समझने में मदद करते हैं कि अवतारवाद केवल एक धार्मिक सिद्धांत नहीं है, बल्कि यह भक्तों की आस्था और विश्वास का महत्वपूर्ण हिस्सा भी है। साधुओं का उद्धार: अवतार का उद्देश्य केवल धर्म की स्थापना ही नहीं, बल्कि साधु-संतों का उद्धार करना भी होता है। ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा करने और उन्हें सही मार्ग दिखाने के लिए अवतार लेते हैं। यह सिद्धांत भक्तों के विश्वास और उनकी आस्था को मजबूत करता है। "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥ "जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उदय होता है, तब-तब मैं अपने रूप को धारण करके आता हूँ। मुक्ति का दान: उपर्युक्त उद्देश्य भी अवतार के लिए गौण रूप ही माने जाते हैं। अवतार का मुख्य प्रयोजन इससे सर्वथा भिन्न है। सर्वैश्यर्वसंपन्न त्रिगुणातीत , कालातीत और सर्वनिरपेक्ष ईश्वर के लिए दुष्टदलन और साधुरक्षण का कार्य तो उनकी इच्छा शक्ति से भी सिद्ध हो सकता है, तब भगवान के अवतार का मुख्य प्रयोजन क्या हो सकता है। यहाँ पर श्रीमद्भागवत (१०.२९.१४) कहती है : नृणां नि:श्रेयसार्थाय व्यक्तिर्भगवती भुवि। अव्ययस्याप्रमेयस्य निर्गुणास्य गुणात्मन:।। मानवों को साधन निरपेक्ष मुक्ति का दान ही भगवान के प्राकट्य का जागरूक प्रयोजन है। भगवान स्वत: अपने लीलाविलास से, अपने अनुग्रह से, साधकों को बिना किसी साधना की अपेक्षा रखते हुए, मुक्ति प्रदान करते हैं-अवतार का यही मौलिक तथा प्रधान उद्देश्य है। अवतारवाद के विपक्ष में तर्क वैज्ञानिक दृष्टिकोण: विज्ञान के दृष्टिकोण से अवतारवाद की अवधारणा को प्रमाणित करना कठिन है। विज्ञान ऐसे घटनाओं की पुष्टि के लिए ठोस प्रमाण और तर्क की मांग करता है, जो अवतारवाद में अभावित हैं। तार्किक समस्याएँ: यदि भगवान सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं, तो उन्हें पृथ्वी पर अवतरित होने की आवश्यकता क्यों है? क्या वह अपनी शक्तियों का उपयोग करके समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते? महर्षि दयानंद सरस्वती और आर्य समाज महर्षि दयानंद सरस्वती और आर्य समाज के अनुसार, वेदों में अवतारवाद का कोई उल्लेख नहीं है। वे मानते हैं कि ईश्वर अजन्मा है और उसे संसार में अवतरित होने की आवश्यकता नहीं होती। वह अपनी सर्वशक्ति और सर्वज्ञता के कारण किसी भी समस्या का समाधान कर सकता है। इसलिए, अवतारवाद को वे मिथक मानते हैं। ईश्वर अजन्मा है ईश्वर अजन्मा, अजर और अमर है। उसे किसी भी रूप में पृथ्वी पर आने की आवश्यकता नहीं है। वह अपनी शक्तियों के माध्यम से किसी भी समस्या को हल कर सकता है। यह तर्क लॉजिकल दृष्टिकोण से भी मजबूत है, क्योंकि सर्वशक्तिमान ईश्वर को अवतार लेने की आवश्यकता क्यों पड़ेगी? (ऋग्वेद 10.90.2): "सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्। स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम्॥ "यह पुरुष (ईश्वर) सहस्रों सिरों वाला, सहस्रों आंखों वाला और सहस्रों पैरों वाला है। वह सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त करके दस अंगुल ऊंचा खड़ा है। वह अजन्मा है। श्वेताश्वतर उपनिषद (6.9 के अनुसार: "न तस्य कश्चित् पतिरस्ति लोके न चेशिता नैव च तस्य लिङ्गम्। स कारणं करणाधिपाधिपो न चास्य कश्चिज्जनिता न चाधिप:॥" इस संसार में उसका कोई स्वामी नहीं है, न ही वह किसी का अधीनस्थ है। उसका कोई लिंग (चिह्न) नहीं है। वह सभी कारणों का कारण है, और उसपर कोई शासन नहीं करता। उसका न कोई जन्मदाता है और न कोई स्वामी। अवतारवाद एक गहरा और विस्तृत विषय है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। हालांकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे प्रमाणित करना कठिन है, लेकिन यह विचार लाखों लोगों के विश्वास और आस्था का हिस्सा है। अवतारवाद का उद्देश्य मानवता को नैतिक और धार्मिक मार्ग पर प्रेरित करना है, जो किसी भी समाज के लिए महत्वपूर्ण है। लॉजिकल विश्लेषण प्रकृति का नियम: अगर हम मानते हैं कि प्रकृति के नियमों को ईश्वर ने बनाया है, तो जब इन नियमों में कोई गड़बड़ी होती है, तो ईश्वर को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ता है। यह हस्तक्षेप अवतार के रूप में होता है। जैसे जब किसी मशीन में गड़बड़ी होती है, तो उसका निर्माता उसे सुधारने के लिए हस्तक्षेप करता है, वैसे ही ईश्वर भी अवतार लेकर संसार की समस्याओं का समाधान करते हैं। जैसे माता-पिता अपने बच्चे को जन्म देकर उसका पालन करते हैं, लेकिन जब बच्चे के शरीर में कोई व्याधि उत्पन्न होती है, तो वे दवा या औषधियों का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार, ईश्वर भी जब प्रकृति में गड़बड़ी देखते हैं, तो अवतार के रूप में हस्तक्षेप करते हैं। इस प्रकार हम अवतारवाद के सिद्धांत को समझ सकते हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म में अवतारवाद पर दृष्टिकोण बौद्ध धर्म में अवतारवाद: बौद्ध धर्म में अवतारवाद की अवधारणा हिंदू धर्म की तरह स्पष्ट नहीं है, लेकिन कुछ समानताएं अवश्य मिलती हैं। बौद्ध धर्म मुख्यतः गौतम बुद्ध के शिक्षाओं पर आधारित है, जिनका जन्म एक सामान्य मानव के रूप में हुआ और उन्होंने अपने ज्ञान और तपस्या से बुद्धत्व प्राप्त किया। बौद्ध धर्म में 'बोधिसत्व' की अवधारणा महत्वपूर्ण है, जो उन आत्माओं को संदर्भित करती है जो बुद्धत्व प्राप्त करने के मार्ग पर हैं और अन्य प्राणियों की सहायता करने के लिए पुनर्जन्म लेते हैं। वह बुद्ध को एक मानव और महान शिक्षक मानतें हैं, न कि किसी देवता का अवतार। जैन धर्म में अवतारवाद: जैन धर्म में भी अवतारवाद की अवधारणा हिंदू धर्म से भिन्न है। जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों की महत्वपूर्ण भूमिका है, जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर चुके महापुरुष होते हैं और जो संसार को मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं। तीर्थंकर न तो देवता होते हैं और न ही वे अवतार लेते हैं। वे सामान्य मनुष्यों की तरह जन्म लेते हैं, लेकिन अपने तप और साधना से आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। जैन धर्म में कर्म और पुनर्जन्म की अवधारणा महत्वपूर्ण है, लेकिन यह अवतारवाद से भिन्न है। तीर्थंकरों का जन्म और कर्म उनके पिछले जन्मों के संचित कर्मों का परिणाम होता है। वे अपने आध्यात्मिक साधना से मोक्ष प्राप्त करते हैं और अन्य प्राणियों को भी मोक्ष मार्ग दिखाते हैं। बौद्ध धर्म और जैन धर्म, दोनों ही धर्मों में अवतारवाद की अवधारणा हिंदू धर्म की तुलना में भिन्न है। बौद्ध धर्म में बुद्ध को एक मानव शिक्षक और जाग्रत आत्मा माना जाता है, न कि किसी देवता का अवतार। जैन धर्म में तीर्थंकरों को आत्म-साक्षात्कार प्राप्त महापुरुष माना जाता है, जो अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त करते हैं और अन्य प्राणियों को भी मोक्ष मार्ग दिखाते हैं। दोनों ही धर्मों में आत्मज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति पर जोर दिया गया है, जो उनके धार्मिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का मुख्य हिस्सा है। अवतारवाद के पक्ष और विपक्ष दोनों में तर्क हैं। यह हमारी धार्मिक और आध्यात्मिक मान्यताओं पर निर्भर करता है कि हम इसे कैसे देखते हैं। हमारे समाज में अवतारवाद की मान्यता प्रबल है और यह हमारे धार्मिक ग्रंथों और पूजा-पद्धति का हिस्सा है। अवतारवाद को समझने के लिए हमें इसके दर्शन और तर्क दोनों को देखना होगा और फिर अपने विचारों को विकसित करना होगा। अवतारवाद एक गहरा और विस्तृत विषय है, जो धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। हालांकि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इसे प्रमाणित करना कठिन है, लेकिन यह विचार लाखों लोगों के विश्वास और आस्था का हिस्सा है। अवतारवाद का उद्देश्य मानवता को नैतिक और धार्मिक मार्ग पर प्रेरित करना है, जो किसी भी समाज के लिए महत्वपूर्ण है।

  • ब्रह्मसूत्र: वेदान्त का आधारभूत ग्रंथ

    ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का मुख्य ग्रंथ है, जिसे बादरायण (व्यास) ने रचा है। यह ग्रंथ आत्मा, ब्रह्म और जगत के गूढ़ रहस्यों को समझने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। ब्रह्मसूत्र चार अध्यायों में विभाजित है: समन्वय, अविरोध, साधन, और फल। इस ग्रंथ पर शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य सहित कई आचार्यों ने भाष्य लिखे हैं, जो विभिन्न दार्शनिक दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करते हैं। ब्रह्मसूत्र का अध्ययन आत्म-साक्षात्कार, जीवन की समस्याओं के समाधान और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। गीता और उपनिषदों के साथ, यह वेदान्त के प्रमुख सिद्धांतों का संगठित रूप में सार प्रस्तुत करता है और आध्यात्मिक उन्नति के लिए अनिवार्य है। ब्रह्मसूत्र वेदान्त का आधारभूत ग्रंथ है, जिसे उत्तरमीमांसा का आधार माना जाता है। इसके रचयिता बादरायण माने जाते हैं। वेदान्त का अर्थ है वेदों का अंतिम भाग या सार, और ब्रह्मसूत्र इस ज्ञान को सूत्र रूप में प्रस्तुत करता है। प्रस्थानत्रयी में ब्रह्मसूत्र का विशेष महत्व है। प्रस्थानत्रयी वेदान्त दर्शन के तीन मुख्य ग्रंथों का सामूहिक नाम है, जो इस प्रकार हैं: उपनिषद : ये वेदों के अंतिम भाग हैं और इनमें ब्रह्म, आत्मा, और विश्व के गूढ़ रहस्यों का विवरण है। उपनिषद वेदांत का दार्शनिक आधार हैं। गीता : यह महाभारत के भीष्म पर्व का एक हिस्सा है, जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के मैदान में कर्मयोग, भक्तियोग, और ज्ञानयोग का उपदेश दिया है। गीता में जीवन के विभिन्न पहलुओं और आत्म-साक्षात्कार का विस्तृत वर्णन है। ब्रह्मसूत्र : इसे बादरायण (व्यास) ने रचा है। ब्रह्मसूत्र वेदांत के सिद्धांतों को संक्षिप्त और संगठित रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें उपनिषदों के गूढ़ तत्वों का सूत्र रूप में वर्णन है और विभिन्न मत-मतांतरों का खंडन-मंडन भी है। प्रस्थानत्रयी का अध्ययन वेदांत के अनुयायियों के लिए अनिवार्य माना जाता है, क्योंकि ये ग्रंथ ब्रह्म, आत्मा, और मोक्ष के विषय में विस्तृत और समन्वित ज्ञान प्रदान करते हैं। वेदांत के विभिन्न आचार्यों ने इन ग्रंथों पर भाष्य लिखे हैं, जिनमें शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, और मध्वाचार्य के भाष्य प्रमुख हैं। ब्रह्मसूत्र पर भाष्य ब्रह्मसूत्र पर विभिन्न वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य, टीका, और वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें से शंकराचार्य का ' शारीरक भाष्य' सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, जो अपनी गम्भीरता, प्रांजलता, और प्रसाद गुणों के कारण प्रसिद्ध है। ब्रह्मसूत्र पर कई आचार्यों ने अपने-अपने सम्प्रदायों और दृष्टिकोणों के अनुसार भाष्य लिखे हैं। यहाँ कुछ प्रमुख भाष्यकारों और उनके भाष्यों का उल्लेख है: शंकराचार्य : शारीरक भाष्य : शंकराचार्य का भाष्य अद्वैत वेदांत पर आधारित है और यह सबसे प्रसिद्ध और व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त भाष्य है। रामानुजाचार्य : श्रीभाष्य : रामानुजाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वेदांत के आधार पर यह भाष्य लिखा है। मध्वाचार्य : अणुभाष्य : यह भाष्य द्वैत वेदांत पर आधारित है। भास्कराचार्य : भास्कर भाष्य : यह भाष्य भेदाभेद वेदांत पर आधारित है। निम्बार्काचार्य : वेदांत पारिजात सौरभ : निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैत वेदांत के सिद्धांत पर यह भाष्य लिखा है। वल्लभाचार्य : अणुभाष्य : यह भाष्य शुद्धाद्वैत वेदांत पर आधारित है। विज्ञान भिक्षु : विज्ञानामृतभाष्य : विज्ञान भिक्षु ने इस भाष्य को योग वेदांत के दृष्टिकोण से लिखा है। बलदेव विद्याभूषण : गोविन्द भाष्य : यह अचिन्त्यभेदाभेद भाष्य गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के दृष्टिकोण से लिखा गया है। इन भाष्यों में प्रत्येक आचार्य ने अपने सम्प्रदाय और दार्शनिक दृष्टिकोण के आधार पर ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है, जिससे विभिन्न विचारधाराओं का विस्तृत और समृद्ध साहित्य उपलब्ध होता है। ब्रह्मसूत्र के अध्याय ब्रह्मसूत्र के चार अध्याय हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है: प्रथम अध्याय: समन्वय इस अध्याय में विभिन्न श्रुतियों का समन्वय किया गया है, जिसमें सभी का अभिप्राय ब्रह्म में ही समाहित किया गया है। द्वितीय अध्याय: अविरोध प्रथम पाद: स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार। द्वितीय पाद: विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण। तृतीय पाद: ब्रह्म से तत्वों की उत्पत्ति। चतुर्थ पाद: भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार। तृतीय अध्याय: साधन इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का निर्देश और मुक्ति के बहिरंग और अन्तरंग साधनों का वर्णन किया गया है। चतुर्थ अध्याय: फल इस अध्याय में जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया गया है। ब्रह्मसूत्र: वेदान्त का आधारभूत ग्रंथ ब्रह्मसूत्र: वेदान्त का आधारभूत ग्रंथ है। ब्रह्मसूत्र के कुछ प्रमुख सूत्रों की व्याख्या करने से पहले, यह समझना महत्वपूर्ण है कि ब्रह्मसूत्र एक अत्यंत संक्षिप्त और गूढ़ ग्रंथ है। प्रत्येक सूत्र बहुत संक्षेप में बहुत गहरे विचार प्रकट करता है। यहाँ कुछ प्रसिद्ध सूत्रों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है: 1. अथातो ब्रह्मजिज्ञासा (अध्याय 1, पाद 1, सूत्र 1) अर्थ: अब ब्रह्म (परम सत्य) के बारे में जिज्ञासा की जानी चाहिए। यह सूत्र ब्रह्मसूत्र का पहला और प्रमुख सूत्र है। यह संकेत करता है कि जब एक व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की एक विशेष अवस्था पर पहुँच जाता है, तब उसे ब्रह्म के बारे में जिज्ञासा करनी चाहिए। यह वेदांत के अध्ययन की शुरुआत का प्रतीक है और यह दर्शाता है कि ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य है। 2. जनमाद्यस्य यतः (अध्याय 1, पाद 1, सूत्र 2) अर्थ: ब्रह्म वह है जिससे सृष्टि, स्थिति और संहार होता है। यह सूत्र ब्रह्म की परिभाषा प्रस्तुत करता है। यह बताता है कि ब्रह्म वह अद्वितीय सत्ता है जिससे सृष्टि का उत्पत्ति, पालन और लय होता है। यह सूत्र ब्रह्म के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी स्वरूप को दर्शाता है। 3. शास्त्रयोनित्वात् (अध्याय 1, पाद 1, सूत्र 3) अर्थ: ब्रह्म शास्त्रों का स्रोत है। इस सूत्र में बताया गया है कि वेद और उपनिषद जैसे शास्त्र ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए महत्वपूर्ण साधन हैं। शास्त्र ब्रह्म का ज्ञान प्रदान करते हैं और ब्रह्म के सत्य स्वरूप को समझने का माध्यम हैं। 4. तत्तु समन्वयात् (अध्याय 1, पाद 1, सूत्र 4) अर्थ: वेदों के सभी हिस्से ब्रह्म के समन्वय में हैं। यह सूत्र कहता है कि वेदों के विभिन्न भागों में प्रतिपादित सिद्धांत ब्रह्म के बारे में ही हैं। भले ही वे विभिन्न दृष्टिकोणों से प्रस्तुत किए गए हों, अंततः वे सभी ब्रह्म की ही बात करते हैं। 5. ईक्षतेर्नाशब्दम् (अध्याय 1, पाद 1, सूत्र 5) अर्थ: ब्रह्म ने सृष्टि की रचना की, यह शास्त्रों में वर्णित है। इस सूत्र में कहा गया है कि ब्रह्म ने सृष्टि का निर्माण किया और यह वेदों में स्पष्ट रूप से वर्णित है। इसका अर्थ है कि सृष्टि की रचना ब्रह्म की इच्छा से हुई है। 6. आनन्दमयोऽभ्यासात् (अध्याय 1, पाद 1, सूत्र 12) अर्थ: ब्रह्म आनंदमय है, अभ्यास से यह सिद्ध होता है। यह सूत्र बताता है कि ब्रह्म आनंद का स्रोत है। वेदांत के अभ्यास से यह अनुभव किया जा सकता है कि ब्रह्म ही वास्तविक और शाश्वत आनंद का स्रोत है। 7 . सुषुप्त्येकसाक्षात्कारायाम् (अध्याय 3, पाद 2, सूत्र 10) अर्थ: गहरी नींद में केवल आत्मा का ही साक्षात्कार होता है। इस सूत्र में कहा गया है कि गहरी नींद के दौरान, जब सभी बाहरी और आंतरिक गतिविधियाँ शांत हो जाती हैं, तब केवल आत्मा का साक्षात्कार होता है। यह आत्मा की शुद्धता और स्थायित्व को दर्शाता है। ब्रह्मसूत्र के इन प्रमुख सूत्रों की व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि यह ग्रंथ अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को संक्षेप और संगठित रूप में प्रस्तुत करता है। प्रत्येक सूत्र में गहरे दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ छिपे हुए हैं, जो अध्ययन और चिंतन द्वारा समझे जा सकते हैं। ब्रह्मसूत्र के महत्व ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का सार प्रस्तुत करता है और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसका अध्ययन मनुष्य को आत्मा, ब्रह्म, और जगत के गूढ़ रहस्यों को समझने में सहायता करता है। यह जीवन की समस्याओं का समाधान और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। ब्रह्मसूत्र वेदान्त दर्शन का सार प्रस्तुत करता है और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। इसका अध्ययन निम्नलिखित कारणों से अत्यंत महत्वपूर्ण है: आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार ब्रह्मसूत्र का अध्ययन मनुष्य को आत्मा, ब्रह्म, और जगत के गूढ़ रहस्यों को समझने में सहायता करता है। यह हमें ब्रह्म (परम सत्य) के स्वरूप का ज्ञान कराता है और आत्म-साक्षात्कार की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करता है। जीवन की समस्याओं का समाधान ब्रह्मसूत्र जीवन की विभिन्न समस्याओं का दार्शनिक समाधान प्रस्तुत करता है। यह हमें बताता है कि सच्चा सुख और शांति बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि आत्मा के भीतर है। इससे हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने की शक्ति और समझ मिलती है। मोक्ष का मार्ग ब्रह्मसूत्र मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। यह हमें कर्म, ज्ञान और भक्ति के माध्यम से आत्मा को शुद्ध करने और ब्रह्म के साथ एकत्व प्राप्त करने का रास्ता दिखाता है। विवादों का समाधान ब्रह्मसूत्र विभिन्न दार्शनिक और धार्मिक विवादों का समाधान प्रस्तुत करता है। यह विभिन्न मत-मतांतरों के बीच समन्वय स्थापित करता है और शास्त्रों के विरोधाभासों को स्पष्ट करता है। वेदान्त का संगठित रूप ब्रह्मसूत्र वेदान्त के सिद्धांतों को सूत्र रूप में प्रस्तुत करता है, जो अध्ययन और समझ को सरल बनाता है। यह वेदों और उपनिषदों के गूढ़ तत्त्वों का संक्षेप में और संगठित रूप में वर्णन करता है। विविध दृष्टिकोणों का समावेश ब्रह्मसूत्र पर विभिन्न वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य लिखे हैं, जो हमें विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करने और सत्य को समझने का अवसर प्रदान करते हैं। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि ने अपने-अपने दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है। धार्मिक और दार्शनिक मार्गदर्शन ब्रह्मसूत्र धार्मिक और दार्शनिक दोनों दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है। यह हमें न केवल आत्मा और ब्रह्म का ज्ञान कराता है, बल्कि धर्म, नैतिकता और जीवन के उद्देश्य के बारे में भी मार्गदर्शन प्रदान करता है। गीता और उपनिषदों से समानता गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र को मिलाकर 'प्रस्थानत्रयी' कहा जाता है। ये तीनों ग्रंथ वेदान्त के मुख्य स्रोत हैं। उपनिषदों में वेदों का दार्शनिक और आध्यात्मिक सार है, जबकि गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कर्मयोग, भक्तियोग और ज्ञानयोग का उपदेश दिया है। ब्रह्मसूत्र इन दोनों का समन्वय करते हुए वेदान्त दर्शन का विधिवत और संगठित रूप प्रस्तुत करता है। गीता और उपनिषदों के साथ ब्रह्मसूत्र की समानता को समझने के लिए, हमें उन श्लोकों और सूत्रों को देखना होगा जो प्रमुख दार्शनिक विचारों और सिद्धांतों को साझा करते हैं। यहां कुछ उदाहरण दिए गए हैं: 1. ब्रह्म का स्वरूप ब्रह्मसूत्र: जनमाद्यस्य यतः (1.1.2) - ब्रह्म वह है जिससे सृष्टि, स्थिति और संहार होता है। उपनिषद: तैत्तिरीय उपनिषद (3.1.1): " सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म " - ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है। छांदोग्य उपनिषद (6.2.1): " सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाऽद्वितीयम् " - इस सृष्टि का मूल ब्रह्म एक है और अद्वितीय है। गीता: भगवद गीता (10.8): " अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते " - मैं (कृष्ण) सबका कारण हूँ, सब कुछ मुझसे उत्पन्न होता है। 2. आत्मा का स्वरूप ब्रह्मसूत्र: अयमात्मा ब्रह्म : यह आत्मा ब्रह्म है। उपनिषद: बृहदारण्यक उपनिषद (1.4.10): "अहं ब्रह्मास्मि" - मैं ब्रह्म हूँ। छांदोग्य उपनिषद (6.8.7): "तत्त्वमसि" - तुम वही हो (ब्रह्म हो)। गीता: भगवद गीता (2.20): "न जायते म्रियते वा कदाचित्" - आत्मा न तो जन्म लेती है और न मरती है। भगवद गीता (2.22): "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय" - जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करती है। 3. ब्रह्मज्ञान ब्रह्मसूत्र: शास्त्रयोनित्वात् (1.1.3) - ब्रह्म शास्त्रों का स्रोत है। उपनिषद: मुण्डक उपनिषद (1.1.5): "तस्मै स होवाच यथा शनं" - ज्ञानी गुरु शिष्य को ब्रह्मज्ञान प्रदान करता है। कठोपनिषद (2.1.1): "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत" - उठो, जागो और श्रेष्ठ गुरु के पास जाकर ब्रह्मज्ञान प्राप्त करो। गीता: भगवद गीता (4.34): "तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया" - ज्ञान प्राप्त करने के लिए विनम्रता, प्रश्न और सेवा के द्वारा ज्ञानी गुरु के पास जाओ। भगवद गीता (7.19): "बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते" - अनेक जन्मों के बाद, ज्ञानी मुझे (कृष्ण) प्राप्त करता है। 4. कर्म और मोक्ष ब्रह्मसूत्र:(1.1.15) आत्मैकत्वे चोभाव्यं प्राणभृन्मतः   इसका अर्थ है कि आत्मा का ब्रह्म के साथ एकत्व है। जब आत्मा इस ज्ञान को प्राप्त करती है, तब वह मोक्ष को प्राप्त करती है। उपनिषद: कठोपनिषद (2.2.15): "न कर्मणा न प्रजया धनेन" - न कर्म से, न संतानों से, न धन से, केवल ब्रह्मज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त होता है। छांदोग्य उपनिषद (8.15.1): "स एव साधु यः कृतात्मा" - वह वास्तव में श्रेष्ठ है, जिसने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त कर लिया है।" गीता: भगवद गीता (2.51): "कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः" - बुद्धि से युक्त होकर कर्म के फल का त्याग करने वाला मुनि मोक्ष को प्राप्त करता है। भगवद गीता (18.66): "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज" - सभी धर्मों को त्याग कर मेरी (कृष्ण) शरण में आओ, मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त कर दूंगा। 5. उपासना ब्रह्मसूत्र: "सर्ववेदान्तप्रत्ययम् चोदनात्" (ब्रह्मसूत्र 1.1.4)- "सभी वेदांत ब्रह्म पर आधारित हैं।" इस सूत्र से यह स्पष्ट होता है कि सभी वेदांत ग्रंथों का मुख्य उद्देश्य ब्रह्म का ज्ञान और उसकी उपासना है। उपनिषद: मुण्डक उपनिषद (3.2.9): "स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद" - जो उस परम ब्रह्म को जानता है, वह शुद्ध हो जाता है। ईशावास्य उपनिषद (1): "ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्" - इस जगत में जो कुछ भी है, वह सब ब्रह्म से आवृत्त है। गीता: भगवद गीता (12.2): "मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते" - जो अपने मन को मुझमें स्थिर करके मेरी उपासना करता है। भगवद गीता (12.3-4): "ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते" - जो निराकार ब्रह्म की उपासना करता है। इन उद्धरणों के माध्यम से हम देख सकते हैं कि गीता, उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के बीच कई दार्शनिक और आध्यात्मिक समानताएँ हैं। ये सभी ग्रंथ मिलकर वेदान्त दर्शन की गहनता और व्यापकता को प्रकट करते हैं। ब्रह्मसूत्र, वेदान्त दर्शन का आधारभूत ग्रंथ है, जो ब्रह्म और आत्मा के रहस्यों को समझने और मोक्ष प्राप्ति के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है। यह गीता और उपनिषदों के साथ मिलकर हमारे जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विभिन्न आचार्यों के द्वारा लिखे गए भाष्यों के माध्यम से इसका गूढ़ अर्थ और भी स्पष्ट हो जाता है, जिससे यह ग्रंथ अध्ययन और मनन के लिए एक असीमित स्रोत बन जाता है।

  • तुलसीदास की रामचरितमानस: भक्ति और ज्ञान का संगम

    तुलसीदास की 'रामचरितमानस' भारतीय साहित्य और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे भक्ति और ज्ञान के अद्वितीय संगम के रूप में माना जाता है। यह महाकाव्य भगवान राम के जीवन की कथा को अवधी भाषा में प्रस्तुत करता है, जिसमें उनके जन्म, बचपन, वनवास, रावण वध और राज्याभिषेक की घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। तुलसीदास ने इस ग्रंथ के माध्यम से भक्ति की गहराइयों और जीवन की नैतिक शिक्षाओं को उजागर किया है। 'रामचरितमानस' ने भारतीय समाज में धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्य स्थापित किए हैं, और यह आज भी प्रेरणा का महत्वपूर्ण स्रोत बना हुआ है। इस ग्रंथ ने भारतीय लोकजीवन में गहरी छाप छोड़ी है और इसके द्वारा प्रस्तुत भक्ति, ज्ञान और सांस्कृतिक समृद्धि के संदेश सदीयों से लोगों को मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं। तुलसीदास का नाम भारतीय साहित्य और भक्ति आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। उनकी अमर कृति 'रामचरितमानस' को भक्ति और ज्ञान का संगम माना जाता है। यह ग्रंथ न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं को भी विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। तुलसीदास की रामचरितमानस तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखा, जो भारतीय साहित्य में एक बहुमूल्य ग्रंथ है। यह महाकाव्य भगवान राम के जीवन, आदर्शों और कामों को बताता है। यह अवधी भाषा में लिखा गया ग्रंथ सात कांडों में विभाजित है। इन सात कांड के नाम बालकाण्ड, अयोध्यकाण्ड, अरण्यकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, लङ्काकाण्ड, उत्तरकाण्ड है। जिसमें बालकाण्ड को सबसे बड़ा कांड और किष्किन्धाकाण्ड कांड को सबसे छोटा कांड बताया गया है। इस काव्य में तुलसीदास ने भक्ति और ज्ञान का अद्भुत संगम दिखाया है; वे एक ओर भगवान राम की भक्ति करते हैं और दूसरी ओर जीवन के गहरे ज्ञान और नैतिक शिक्षाओं को बताते हैं। "रामचरितमानस" धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है; यह भारतीय संस्कृति और समाज की विविधता और एकता को भी चित्रित करता है। इस ग्रंथ ने भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव डाला है और आज भी भक्ति, ज्ञान और सांस्कृतिक समृद्धि का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। रामचरितमानस का निर्माण इस लेख को हिंदी साहित्य (अवधी साहित्य) में एक महत्वपूर्ण कृति माना जाता है। इसे तुलसीकृत रामायण या तुलसी रामायण भी कहलाता है। भारतीय संस्कृति में श्रीरामचरितमानस का एक विशिष्ट धार्मिक स्थान है। यह एक पवित्र ग्रंथ है जो शिव की प्रेरणा से तुलसी द्वारा रचित है। सुंदर काण्ड का पाठ शारद नवरात्रि में नौ दिनों तक किया जाता है। मंगलवार और शनिवार को रामायण मण्डलों द्वारा पाठ भी किया जाता है। श्रीरामचरितमानस में श्रीराम को अखिल ब्रह्माण्ड के स्वामी हरिनारायण भगवान के अवतार के रूप में चित्रित किया गया है, जबकि महर्षि वाल्मीकि की रामायण में श्रीराम को एक आदर्श मानव चरित्र के रूप में चित्रित किया गया है। जिसमें यह बताया गया है कि लोगों को अपने जीवन को कैसे जीना चाहिये, चाहे कितने भी अवरोध हों, हमें मर्यादा का त्याग नहीं करना चाहिये। श्री श्रीराम सर्वशक्तिमान होते हुए भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। गोस्वामी जी ने रामचरित का अद्भुत शैली में दोहों, चौपाइयों, सोरठों और छंद का आश्रय लेकर वर्णन किया है। श्रीरामचरितमानस लिखने में 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन लगे, और1576 ईस्वी के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन समाप्त हुआ। श्री मधुसूदन सरस्वती जी ने रामचरितमानस को पढ़ कर अपनी सम्मति देते हुए लिखा है। आनन्दकानने ह्यस्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः । कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता ॥ इस काशीरूपी आनन्दवन में तुलसीदास एक चलता-फिरता तुलसी का पौधा है । उसकी कवितारूपी मञ्जरी बड़ी ही सुन्दर है, जिस पर श्रीरामरूपी भँवरा सदा मँडराया करता है। भक्ति का महत्व 'रामचरितमानस' में भक्ति का महत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। तुलसीदास ने राम को परमात्मा के रूप में प्रस्तुत किया है और उनके प्रति अटूट भक्ति को सर्वोच्च स्थान दिया है। यह भक्ति साधक को ईश्वर से जोड़ने का माध्यम बनती है और उसे आत्मिक शांति प्रदान करती है। तुलसीदास की 'रामचरितमानस' में भक्ति का अत्यधिक महत्व है। उन्होंने भगवान राम को परमात्मा के रूप में प्रस्तुत करते हुए भक्ति को जीवन का सर्वोच्च मार्ग बताया है। भक्ति के माध्यम से तुलसीदास ने यह समझाने का प्रयास किया है कि ईश्वर की कृपा और आशीर्वाद प्राप्त करने का सबसे सरल और प्रभावी तरीका भक्ति है। "तुलसीदास जड़-चेतन हारा। राम भजन जानै बिनु बारा।।" तुलसीदास कहते हैं कि राम का भजन (स्मरण) किए बिना कोई भी जीवित नहीं रह सकता। भक्ति ही जीवन का सार है। "राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरीं द्वार। तुलसी भीतर बाहेरहु जौं चाहसि उजिआर।।" तुलसीदास कहते हैं कि राम का नाम मणि (रत्न) दीपक के समान है, जिसे यदि जीभ रूपी देहरी (द्वार) पर रखा जाए तो भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला होता है। यानी, राम का नाम जपने से आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार के अंधकार का नाश होता है। "भव भय प्रबिसनु बिनु सेवक संता। मन क्रम बचन करम परिपंता।।" भक्ति के बिना संसार के भय से पार पाना असंभव है। मन, वचन और कर्म से की गई भक्ति ही ईश्वर को प्रसन्न कर सकती है। "भक्ति विमुख सुलभ करि कृपा करी जन जानि। स्वभाव सहज सज्जन, विपत्ति परिहरि आन।।" ईश्वर का स्वभाव ही है कि वे सज्जनों पर कृपा करते हैं और विपत्ति को दूर करते हैं। भक्ति करने वालों को वे सहज ही अपनी कृपा से अनुग्रहित करते हैं। "भव सागर सब जगत को, चाहत पार न कोइ।राम कृपा बिनु तात एहि, तरइ न कोउ न होइ।।" तुलसीदास कहते हैं कि संसार के भवसागर को पार करने की इच्छा तो सब रखते हैं, परंतु राम की कृपा के बिना कोई भी इसे पार नहीं कर सकता। इन छंदों से स्पष्ट होता है कि तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' में भक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया है। उनका मानना था कि भक्ति के बिना जीवन अधूरा है और राम की कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग भक्ति ही है। भक्ति के माध्यम से व्यक्ति अपने जीवन को सार्थक बना सकता है और आत्मिक शांति प्राप्त कर सकता है। ज्ञान का प्रकाश भक्ति के साथ-साथ 'रामचरितमानस' में ज्ञान का भी महत्वपूर्ण स्थान है। तुलसीदास ने विभिन्न पात्रों के माध्यम से जीवन के विभिन्न शिक्षाओं को प्रस्तुत किया है। राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, भरत, और अन्य पात्रों के चरित्र और उनके कार्यों में जीवन के गहरे ज्ञान की झलक मिलती है। ये पात्र अपने जीवन में विभिन्न समस्याओं का सामना करते हैं और उनके समाधान के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। "धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परखिए चारी।।" धैर्य, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा विपत्ति के समय में ही होती है। कठिनाइयों के दौरान ही इनकी सच्चाई और महत्व स्पष्ट होता है। "जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिनहिं बिलोकत पातक भारी।।" जो मित्र आपके दुख में दुखी नहीं होता, उसे देखकर पाप होता है। सच्चा मित्र वही है जो आपके दुख में आपके साथ हो। "सचिव, बैद, गुरु तीनि जो, प्रिय बोलहिं भय आस। राज, धर्म, तन तीनि कर, होइ बेगिहिं नास।।" मंत्री, वैद्य और गुरु - ये तीन यदि भय या लालच के कारण प्रिय बोलते हैं, तो राज्य, धर्म और शरीर - ये तीन शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं। "परहित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।" दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को पीड़ा देने के समान कोई अधर्म नहीं है। सबसे बड़ा धर्म दूसरों की सेवा और सबसे बड़ा पाप दूसरों को कष्ट देना है। "प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।।" यहां पर पिता सागर भगवान से कहते हैं अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी पंरतु आपने ही तो हमें मर्यादा का पालन करना सिखाया है। भगवान राम ने मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर सभी को अपने कर्तव्यों का पालन करने की शिक्षा दी है। "जाकी रही भावना जैसी। प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।।" जिस प्रकार की भावना होती है, उसी प्रकार का भगवान का स्वरूप दिखता है। व्यक्ति के मनोभाव के अनुसार ही उसे भगवान का अनुभव होता है। इन उद्धरणों से यह स्पष्ट होता है कि 'रामचरितमानस' में जीवन के विभिन्न पहलुओं पर ज्ञान और शिक्षाएं दी गई हैं। तुलसीदास ने राम, सीता, लक्ष्मण, भरत, हनुमान आदि पात्रों के माध्यम से जीवन की सच्चाइयों और आदर्शों को प्रस्तुत किया है। यह ज्ञान न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह जीवन के हर क्षेत्र में मार्गदर्शन प्रदान करता है तुलसीदास का 'रामचरितमानस' वास्तव में ज्ञान का एक महान स्रोत है। इसमें जीवन के हर पहलू को छुआ गया है और इसे समझने और अपनाने से व्यक्ति अपने जीवन को सही दिशा में ले जा सकता है। ज्ञान का यह प्रकाश व्यक्ति को अंधकार से बाहर निकालकर उसे सत्य और धर्म के मार्ग पर अग्रसर करता है। सांस्कृतिक और सामाजिक योगदान तुलसीदास की 'रामचरितमानस' भारतीय संस्कृति और समाज का एक अद्वितीय दर्पण है। इस महाकाव्य ने न केवल धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक क्षेत्रों में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया है। तुलसीदास ने अपने समय की सामाजिक समस्याओं को प्रस्तुत कर उनके समाधान का मार्ग भी दिखाया है। सामाजिक योगदान सामाजिक समरसता : "जन्म जाति गुण बुद्धि विभु, विविध पुराण श्रुति गावत।करम प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करइ सो तस फल चाखा।।" तुलसीदास ने जन्म, जाति, गुण और बुद्धि की भिन्नताओं को स्वीकार करते हुए कर्म को सबसे महत्वपूर्ण माना है। उनके अनुसार, व्यक्ति अपने कर्मों के आधार पर ही फल पाता है, न कि उसकी जाति या जन्म के आधार पर। नारी सम्मान : "ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।सकल ताड़ना के अधिकारी।।" इस प्रसिद्ध पंक्ति को कई बार गलत अर्थ में लिया गया है, लेकिन तुलसीदास के समय की सामाजिक स्थिति को देखते हुए, उन्होंने महिलाओं के प्रति सम्मान और स्नेह की आवश्यकता पर बल दिया। 'रामचरितमानस' में सीता, अनुसुइया, और शबरी जैसी नारी पात्रों के माध्यम से उन्होंने नारी शक्ति और उनके सम्मान को उजागर किया है। सामाजिक एकता : "नर कर करम सुभासुभ हेतू।जाहिं विदित तासु भव हेतू।।" व्यक्ति को अच्छे और बुरे कर्मों के परिणाम का ज्ञान होना चाहिए। समाज में एकता और सद्भावना बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि लोग अपने कर्मों का सही आकलन करें और उसके अनुसार आचरण करें। सांस्कृतिक योगदान भाषाई योगदान : 'रामचरितमानस' अवधी भाषा में लिखा गया है, जो उस समय की आम जनता की भाषा थी। इस ग्रंथ ने अवधी को साहित्यिक और धार्मिक मान्यता दी, जिससे यह भाषा आम जनता के बीच प्रचलित हो गई और इसे एक नई पहचान मिली। लोकगीत और लोकसंस्कृति : 'रामचरितमानस' ने भारतीय लोकसंस्कृति को भी समृद्ध किया। इसके विभिन्न अंशों को लोकगीतों, भजनों और रामलीलाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। रामलीला, जो कि रामचरितमानस पर आधारित नाटकीय प्रस्तुति है, भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गई है। सांस्कृतिक मूल्यों का संवर्धन : "राम नाम मणि दीप धरु जीह देहरीं द्वार।तुलसी भीतर बाहेरहु जौं चाहसि उजिआर।।" तुलसीदास के अनुसार, राम के नाम का स्मरण करना एक ऐसा दीपक है जो जीवन को अंदर और बाहर दोनों ओर से उज्ज्वल करता है। इस प्रकार, रामचरितमानस ने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। त्योहार और उत्सव : रामचरितमानस ने कई धार्मिक त्योहारों और उत्सवों की परंपरा को भी स्थापित किया। रामनवमी, दशहरा और दीपावली जैसे त्योहारों को समाज में विशेष महत्व मिला, जिससे सांस्कृतिक एकता और सामाजिक जुड़ाव बढ़ा। तुलसीदास की 'रामचरितमानस' न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि यह भारतीय समाज और संस्कृति का महत्वपूर्ण आधार भी है। इस महाकाव्य ने सामाजिक समरसता, नारी सम्मान, और सांस्कृतिक मूल्यों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाई है। भाषा, लोकगीत, और धार्मिक त्योहारों के माध्यम से भारतीय समाज को एकजुट करने और सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करने में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इस प्रकार, तुलसीदास का यह अमर काव्य सदियों से समाज और संस्कृति के निर्माण और संवर्धन में योगदान देता आ रहा है और आने वाले समय में भी यह भक्ति और ज्ञान का अद्भुत संगम बनकर अपनी प्रभावशाली भूमिका निभाता रहेगा। 'रामचरितमानस' धार्मिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है और इसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं का सारांश मिलता है, जिससे भारतीय समाज को भक्ति और ज्ञान का अमूल्य उपहार प्राप्त हुआ है।

  • सभी देवता के गायत्री मंत्र

    गायत्री मंत्र न केवल एक प्राचीन वेद मंत्र है, बल्कि यह आत्मा की शुद्धि, बुद्धि की प्रखरता और जीवन की समृद्धि के लिए एक महत्वपूर्ण साधना भी है। इसके नियमित जाप से व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा, मानसिक शांति और आध्यात्मिक उन्नति का संचार होता है। गायत्री मंत्र का विस्तार सर्व प्राचीन ऋग्वेद से लिया गया है। ऋग्वेद की रचना आज से 2500-3500 वर्ष पूर्व हुई थी। इस मंत्र के दृष्टा ब्रह्मर्षि विश्वामित्र हैं। 'ॐ भूर्भुवः स्वः' यह मंत्र यजुर्वेद से लिया गया है और इसे महाव्याहृति के रूप में जाना जाता है। यह एक महान आध्यात्मिक कथन है जिसका प्रयोग कई अन्य मंत्रों से पूर्व किया जाता है। गायत्री मंत्र का अर्थ है पृथ्वी, स्वर्ग और उससे आगे के सभी लोकों से अपने आप को जोड़ना और उस परम ऊर्जा को अपने भीतर समाहित करना। 'तत्' का तात्पर्य है 'वह', जो अवर्णनीय और अतुलनीय है। 'सवितुर्' का अर्थ है सूर्य, सविता, ज्ञान या विवेक, जो सभी को प्रेरित करता है और सभी का प्राण तत्व है। यह एक दिव्य प्रकाश है जो सबका सार तत्व है। 'वरेण्यम' का अर्थ है 'आराधना करना', अर्थात् हम उस ब्रह्मांड या उससे भी परे की दिव्यता को प्रणाम करते हैं। अगली पंक्ति 'भर्गो देवस्य धीमहि' का अर्थ है उस दिव्यता का निरंतर चिंतन करना और उसकी ध्वनि में ध्वनित होते रहना। अंतिम पंक्ति 'धियो यो नः प्रचोदयात्' का अर्थ है कि हम उसकी दिव्य बुद्धि, परम प्रकाश या परम ज्ञान का ध्यान करते हैं और सदैव उसी में निवास करते हैं। ॐ भूर्भुवः स्वः (तैत्तिरीय आरण्यक, यजुर्वेद) तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात् (ऋग्वेद 3/62/10) गायत्री मंत्र जाप कब करें— 1. सूर्योदय से पूर्व 2. दोपहर में 3. सूर्यास्त से पूर्व गायत्री मंत्र जाप से लाभ— 1. मन की शांति और एकाग्रता के लिए गायत्री मंत्र का जाप करना कहिए। 2. गायत्री मंत्रों के जाप से दुःख, कष्ट, दरिद्रता और पाप दूर होते हैं। 3. संतान प्राप्ति के लिए भी गायत्री मंत्र का जाप किया जाता है। 4. कार्यों में सफलता, करियर में उन्नति आदि के लिए भी गायत्री मंत्र का जाप करना श्रेयस्कर है। 5. विरोधियों या शत्रुओं में अपना वर्चस्व स्थापित करने के​ लिए घी एवं नारियल के बुरा का हवन करें और गायत्री मंत्र का जाप करते रहें। 6. स्मरण शक्ति के विकास के लिए गायत्री मंत्र का जाप प्रतिदिन करना चाहिए। सभी देवता के गायत्री मंत्र अब हम सभी देवता के गायत्री मंत्र देखेंगे। शिव गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ महादे॒वाय॑ धीमहि । तन्नो॑ रुद्रः प्रचो॒दया᳚त् ॥ शिव गायत्री मंत्र का जाप करने से सुख, समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ती होती है। इस मंत्र का जाप करने से पाप का नाश होता है, मानसिक शांति मिलती है और व्यक्ति में सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। पूजा में इस मंत्र का जाप करने से शिव शीघ्र प्रसन्न होते हैं। पितृदोष, कालसर्प दोष, राहु-केतु तथा शनि दोष की शांति के लिए शिव गायत्री मंत्र का जाप करना चाहिए। गणपति गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ वक्रतु॒ण्डाय॑ धीमहि । तन्नो॑ दन्तिः प्रचो॒दया᳚त् ॥ गणपती गायत्री मंत्र का जप प्रतिदिन किया जाए, तो सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और सफलता और सुख समृद्धि आती है। इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति को मानसिक शांति मिलती है. धर्म शास्त्र में इस मंत्र का प्रयोग हर सफलता के लिए सिद्ध माना गया है। यह मंत्र रोग और शत्रुओं पर विजय दिलाता है. नन्दि गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ चक्रतु॒ण्डाय॑ धीमहि । तन्नो॑ नन्दिः प्रचो॒दया᳚त् ॥ पौराणिक कथाओं के अनुसार नंदी जी को भगवान शिव की सभी शक्तियां प्राप्त है। इस वजह से भगवान शिव के आशीर्वाद के लिए नंदी जी का प्रसन्न होना बहुत ही आवश्यक है। नंदी गायत्री मंत्र का प्रतिदिन जाप करने से मनुष्य ज्ञान और बुद्धि में श्रेष्ठ हो जाता है। यह मंत्र शारीरिक कष्टों से मुक्ति दिलाता है। सुब्रह्मण्य गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ महासे॒नाय॑ धीमहि । तन्नः षण्मुखः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के नरन्तर जाप से सभी प्रकार के शत्रुओं का नाश होता है। गरुड गायत्री मन्त्रः ॐ तत्पुरु॑षाय वि॒द्महे॑ सुवर्णप॒क्षाय॑ धीमहि । तन्नो॑ गरुडः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के जाप से सर्पों का भय समाप्त हो जाता है। काला जादू या नकारात्मक शक्तियों से रक्षा होती है। कुंडली में राहू, केतु के दोष और कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है। ब्रह्म गायत्री मन्त्रः ॐ-वेँ॒दा॒त्म॒नाय॑ वि॒द्महे॑ हिरण्यग॒र्भाय॑ धीमहि । तन्नो॑ ब्रह्मः प्रचो॒दया᳚त् ॥ ब्रह्म गायत्री मंत्र की का जाप करने से यश, धन, संपत्ति आदि की प्राप्ति होती है। यह मंत्र चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति करने वाला है। यह मंत्र मृत्यु के पश्चात ब्रह्मलोक का मार्ग प्रशस्त करता है। विष्णु गायत्री मन्त्रः ॐ ना॒रा॒य॒णाय॑ वि॒द्महे॑ वासुदे॒वाय॑ धीमहि । तन्नो॑ विष्णुः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के जाप से पारिवारिक कलह से मुक्ति और सुख और समृद्धि प्राप्त होती है। श्री लक्ष्मि गायत्री मन्त्रः ॐ म॒हा॒दे॒व्यै च वि॒द्महे॑ विष्णुप॒त्नी च॑ धीमहि । तन्नो॑ लक्ष्मी प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र का जाप करने से माता लक्ष्मी की असीम कृपा बरसती है। माना जाता है कि रोजाना कमलगट्टे की माला से महालक्ष्मी गायत्री मंत्र का जाप करने से कर्ज से मुक्ति मिल जाती है और देवी लक्ष्मी की कृपा उनके भक्तों पर बनी रहती है। नरसिंह गायत्री मन्त्रः ॐ-वँ॒ज्र॒न॒खाय वि॒द्महे॑ तीक्ष्णद॒ग्ग्-ष्ट्राय॑ धीमहि । तन्नो॑ नरसिग्ंहः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र के जाप से तांत्रिक मंत्र, बाधा, भूत, पिशाच और अकाल मृत्यु के भय से छुटकारा मिलता है। इन मंत्र का जाप करने से सभी दुःख दूर हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त मंत्र का जाप करते समय नरसिंह देवता को एक मोर पंख अर्पित करना चाहिए। इससे कालसर्प दोष दूर होता है और धन में वृद्धि होती है। सूर्य गायत्री मन्त्रः ॐ भा॒स्क॒राय॑ वि॒द्महे॑ महद्द्युतिक॒राय॑ धीमहि । तन्नो॑ आदित्यः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र का जाप करने से जगत में यश और सम्मान की प्राप्ति होती है। कुंडली में यदि सूर्य दुर्बल हो तो इस मंत्र का जाप करना चहिए, इससे आत्मबल की वृद्धि होती है, और नेत्र विकार भी दूर होते हैं। अग्नि गायत्री मन्त्रः ॐ-वैँ॒श्वा॒न॒राय॑ वि॒द्महे॑ लाली॒लाय धीमहि । तन्नो॑ अग्निः प्रचो॒दया᳚त् ॥ अग्नि को इंद्र का जुड़वा भाई कहा जाता है। वह इंद्र के ही समान बलशाली और शक्तिशाली हैं। वेदों में अग्नि को वैश्वानर अग्नि (विश्व को कार्य में संलग्न रखने वाली ऊर्जा) के रूप में प्रार्थना की गई है। पुराणों में अग्नि की पत्नी का नाम स्वाहा बताया गया है और इनके तीन पुत्र– पावक, पवमान और शुचि हैं। अग्नि ही हवन में अर्पित समिधा को देवताओं तक पहुंचाती है। अग्नि गायत्री मंत्र से आप के अंदर ऊर्जा का विकास होगा। दुर्गा गायत्री मन्त्रः ॐ का॒त्या॒य॒नाय॑ वि॒द्महे॑ कन्यकु॒मारि॑ धीमहि । तन्नो॑ दुर्गिः प्रचो॒दया᳚त् ॥ इस मंत्र का जाप उन लोगों के लिए अच्छा है जो किसी भी प्रकार के भय से मुक्त होना चाहते हैं। इस मंत्र से आत्मविश्वास की वृद्धिहोती है। दुर्गा गायत्री मंत्र बुद्धि और शांति के साथ-साथ समृद्धि और सौभाग्य भी लाता है। नियमित रूप से इस मंत्र का जाप करने से जीवन की परेशानियां और मानसिक समस्याएं दूर होती हैं।

  • भगवान विष्णु के स्मरण से शुद्धि और आध्यात्मिक उन्नति- ॐ अपवित्रः पवित्रो मंत्र का महात्म्य

    भगवान विष्णु, जिन्हें जल का देवता भी माना जाता है, का स्मरण करते हुए इस मंत्र का जाप करने से व्यक्ति सभी सांसारिक पापों से मुक्त हो जाता है। इस मंत्र का नियमित जाप केवल शारीरिक शुद्धि ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक शांति भी प्रदान करता है। ॐ अपवित्रः पवित्रो मंत्र का महात्म्य ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः॥ यह मंत्र वायु पुराण से लिया गया है, जिसका उद्देश्य बाह्य और अंतर दोनों प्रकार की शुचिता से है। इस मंत्र के द्वारा आध्यात्मिक विकास भी सम्भव है। यदि कोई व्यक्ति नित्य इस मंत्र का जाप करे, तो वह शीघ्र ही श्री नारायण के समीप हो जाएगा। इस मंत्र का अर्थ है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे वह अपवित्र हो या पवित्र, किसी भी अवस्था में हो, यदि वह श्री हरि नारायण (पुण्डरीकाक्ष) का स्मरण करता है, तो वह अंदर और बाहर दोनों ही रूप से शुद्ध हो जाता है। ॐ अपवित्रः पवित्रो मंत्र का महात्म्य अतुलनीय है। इस मंत्र का पाठ विभिन्न पूजा, स्नान या आध्यात्मिक अभ्यास के समय किया जाता है। इस मंत्र का उपयोग आध्यात्मिक शुद्धि और पवित्रता की प्राप्ति के उद्देश्य से किया जाता है। पुण्डरीकाक्ष का अर्थ है जिसके नेत्र कमल के समान हों, अर्थात् भगवान विष्णु। भगवान विष्णु ही जल के देवता हैं। यदि कोई उनका जाप करते हुए स्नान करता है, तो विष्णु उसे सभी सांसारिक पापों से मुक्त कर देते हैं। नियमित रूप से स्नान करने के बाद पुरोहित द्वारा व्यक्ति के हाथों में गंगा जल अर्पित किया जाता है, जिसे इस मंत्र के जाप के साथ ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार, इस पवित्र मंत्र के जाप से व्यक्ति न केवल बाह्य शुद्धि प्राप्त करता है, बल्कि आध्यात्मिक उन्नति भी करता है। यह मंत्र भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त करने का एक महत्वपूर्ण साधन है और इसे नियमित रूप से जाप करने से जीवन में शांति और समृद्धि का अनुभव होता है। इस मंत्र का आध्यात्मिक पक्ष यह है कि यह भगवान विष्णु के स्मरण की महिमा को दर्शाता है। यह बताता है कि भगवान विष्णु का नाम स्मरण करने से सभी प्रकार की अशुद्धियाँ दूर हो जाती हैं और मनुष्य पवित्र हो जाता है, चाहे उसकी बाहरी परिस्थिति या आंतरिक स्थिति कैसी भी हो। इसके आध्यात्मिक पक्ष को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है: भगवान का स्मरण : यह मंत्र भगवान विष्णु के स्मरण को अत्यंत महत्वपूर्ण मानता है। इसके अनुसार, भगवान का नाम लेने मात्र से ही मनुष्य के पाप और अशुद्धियाँ समाप्त हो जाती हैं। अशुद्धि का नाश : चाहे शारीरिक, मानसिक या आत्मिक अशुद्धियाँ हों, भगवान विष्णु का स्मरण करने से ये सब समाप्त हो जाती हैं। इसका अर्थ है कि भगवान का नाम सर्वशक्तिमान और सर्वपवित्र है। सर्वस्थिति में शुद्धता : इस मंत्र के अनुसार, चाहे व्यक्ति किसी भी स्थिति में हो (पवित्र या अपवित्र), भगवान विष्णु का स्मरण करने से वह शुद्ध हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि भगवान का नाम किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति को शुद्ध और पवित्र बना सकता है। आंतरिक और बाहरी शुद्धता : इस मंत्र में बाह्य और आंतरिक शुद्धता दोनों का उल्लेख है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान विष्णु का स्मरण करने से न केवल बाहरी शरीर बल्कि आंतरिक मन और आत्मा भी शुद्ध हो जाते हैं। आध्यात्मिक उन्नति : भगवान विष्णु का स्मरण व्यक्ति की आध्यात्मिक उन्नति में सहायक होता है। इससे मन और आत्मा की शुद्धि होती है, जो आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता करती है। यह मंत्र हमें यह सिखाता है कि भगवान विष्णु का स्मरण किसी भी परिस्थिति में हमें शुद्ध और पवित्र बना सकता है, और उनके नाम का स्मरण करने से हमारे जीवन में आध्यात्मिक प्रकाश और शांति आती है।

  • ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते ईशावास्योपनिषद से लिया गया शांति पाठ-हिन्दी अनुवाद

    इस शांति पाठ का उच्चारण साधना, पूजा या ध्यान के प्रारंभ और समापन पर किया जाता है, जिससे मन को शांति, संतुलन और पूर्णता की भावना प्राप्त होती है। यह मंत्र हमें यह समझने में मदद करता है कि सम्पूर्णता और शांति हमारे भीतर ही विद्यमान हैं और हम सभी को एक-दूसरे से जोड़ती हैं। यह शांति पाठ ईशावास्योपनिषद से लिया गया है और इसका गहरा आध्यात्मिक महत्व है। इस मंत्र का अर्थ है कि यह (संसार) पूर्ण है, वह (ब्रह्म) पूर्ण है, पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है। जब पूर्ण से पूर्ण को निकाल लिया जाता है,तब भी पूर्ण ही शेष रहता है। यह मंत्र हमें इस सृष्टि की सम्पूर्णता और अखंडता का बोध कराता है, जिसमें हर वस्तु और हर स्थिति अपने आप में संपूर्ण है। ईशावास्योपनिषद के इस शांति पाठ का नियमित जाप व्यक्ति के जीवन में मानसिक शांति और आध्यात्मिक संतुलन लाता है। यह मंत्र हमें आत्मिक पूर्णता का एहसास कराता है और हमारे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते । पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॥ ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ ॐ। वह ब्रह्म अनंत है, और उससे उत्पन्न यह ब्रह्मांड भी अनंत है। उस अनंत से ही अनंत ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई है। उस अनन्त की अन्नतता के रहते हुए अंत में अनंत ही शेष रहता है। अर्थात् इस अन्नतता का कभी नाश नहीं होता। इसी से सब उत्पन्न हैं इसके पश्चात भी यह पूर्ण हैं, यहां अभाव का कभी कोई स्थान नहीं है। पूर्णता से पूर्ण ही उत्पन्न होता है और महाप्रलय में उसी पूर्णता में सब समाहित हो जाता है। ओम! शांति! शांति! शांति! ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते । पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॥ ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ ॐ ई॒शा वा॒स्य॑मि॒दग्ं सर्वं॒-यँत्किञ्च॒ जग॑त्वां॒ जग॑त् । तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथा॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑स्वि॒द्धनम्᳚ ॥ 1 ॥ कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा᳚णि जिजीवि॒षेच्च॒तग्ं समाः᳚ । ए॒वं त्वयि॒ नान्यथे॒तो᳚ऽस्ति॒ न कर्म॑ लिप्यते॑ नरे᳚ ॥ 2 ॥ अ॒सु॒र्या॒ नाम॒ ते लो॒का अ॒न्धेन॒ तम॒साऽऽवृ॑ताः । ताग्ंस्ते प्रेत्या॒भिग॑च्छन्ति॒ ये के चा᳚त्म॒हनो॒ जनाः᳚ ॥ 3 ॥ अने᳚ज॒देकं॒ मन॑सो॒ जवी᳚यो॒ नैन॑द्दे॒वा आ᳚प्नुव॒न्पूर्व॒मर्​ष॑त् । तद्धाव॑तो॒ऽन्यानत्ये᳚ति॒ तिष्ठ॒त्तस्मिन्᳚न॒पो मा᳚त॒रिश्वा᳚ दधाति ॥ 4 ॥ तदे᳚जति॒ तन्नेज॑ति॒ तद्दू॒रे तद्व॑न्ति॒के । तद॒न्तर॑स्य॒ सर्व॑स्य॒ तदु॒ सर्व॑स्यास्य बाह्य॒तः ॥ 5 ॥ यस्तु सर्वा᳚णि भू॒तान्या॒त्मन्ये॒वानु॒पश्य॑ति । स॒र्व॒भू॒तेषु॑ चा॒त्मानं॒ ततो॒ न विहु॑गुप्सते ॥ 6 ॥ यस्मि॒न्सर्वा᳚णि भू॒तान्या॒त्मैवाभू᳚द्विजान॒तः । तत्र॒ को मोहः॒ कः शोकः॑ एक॒त्वम॑नु॒पश्य॑तः ॥ 7 ॥ स पर्य॑गाच्चु॒क्रम॑का॒यम॑प्रण॒म॑स्नावि॒रग्ं शु॒द्धमपा᳚पविद्धम् । क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भू-र्या᳚थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्य॑दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा᳚भ्यः ॥ 8 ॥ अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ येऽवि॑द्यामु॒पास॑ते । ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॑ वि॒द्याया᳚ग्ं र॒ताः ॥ 9 ॥ अ॒न्यदे॒वायुरि॒द्यया॒ऽन्यदा᳚हु॒रवि॑द्यया । इति॑ शुशुम॒ धीरा᳚णां॒-येँ न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥ 10 ॥ वि॒द्यां चावि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ग्ं स॒ह । अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्ययाऽमृत॑मश्नुते ॥ 11 ॥ अ॒न्धं तमः॒ प्रवि॑शन्ति॒ येऽसम्᳚भूतिमु॒पास॑ते । ततो॒ भूय॑ इव॒ ते तमो॒ य उ॒ सम्भू᳚त्याग्ं र॒ताः ॥ 12 ॥ अ॒न्यदे॒वाहुः सम्᳚भ॒वाद॒न्यदा᳚हु॒रसम्᳚भवात् । इति॑ शुश्रुम॒ धीरा᳚णां॒-येँ न॒स्तद्वि॑चचक्षि॒रे ॥ 13 ॥ सम्भू᳚तिं च विणा॒शं च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ग्ं स॒ह । वि॒ना॒शेन॑ मृ॒त्युं ती॒र्त्वा सम्भू᳚त्या॒ऽमृत॑मश्नुते ॥ 14 ॥ हि॒र॒ण्मये᳚न॒ पात्रे᳚ण स॒त्यस्यापि॑हितं॒ मुखम्᳚ । तत्वं पू᳚ष॒न्नपावृ॑णु स॒त्यध᳚र्माय दृ॒ष्टये᳚ ॥ 15 ॥ पूष॑न्नेकर्​षे यम सूर्य॒ प्राजा᳚पत्य॒ व्यू᳚ह र॒श्मीन् समू᳚ह॒ तेजो॒ यत्ते᳚ रू॒पं कल्या᳚णतमं॒ तत्ते᳚ पश्यामि । यो॒ऽसाव॒सौ पुरु॑षः॒ सो॒ऽहम॑स्मि ॥ 16 ॥ वा॒युरनि॑लम॒मृत॒मथेदं भस्मा᳚न्त॒ग्ं॒ शरी॑रम् । ॐ 3 क्रतो॒ स्मर॑ कृ॒तग्ं स्म॑र॒ क्रतो॒ स्मर॑ कृ॒तग्ं स्म॑र ॥ 17 ॥ अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा᳚ रा॒ये अ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒यना॑नि वि॒द्वान् । यु॒यो॒ध्य॒स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्टां ते॒ नम॑उक्तिं-विँधेम ॥ 18 ॥ ॐ पूर्ण॒मदः॒ पूर्ण॒मिदं॒ पूर्णा॒त्पूर्ण॒मुद॒च्यते । पूर्ण॒स्य पूर्ण॒मादा॒य पूर्ण॒मेवावशि॒ष्यते ॐ शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑ ॥ -- ईशावास्योपनिषद् (ईशोपनिषद्) ॥ईशावास्योपनिषद: हिंदी अनुवाद॥ १. जगत में जो कुछ स्थावर-जंगम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादित है (अर्थात उसे भगवत स्वरूप अनुभव करना चाहिये)। तुम्हें अपने कर्म का पालन त्याग भाव से करना चाहिए, स्वयं को कर्ता नहीं समझना चाहिए। किसी पराई वस्तु या धन पर स्वामित्व का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। २. अर्थात् , इस भाव से कि सब कुछ ईश्वर ही है उससे भिन्न कुछ भी नहीं - अच्छा हो या बुरा सब ईश्वर का ही है, इस भाव से प्रसन्न रहते हुए तुम सौ वर्षों तक जियो। जो मनुष्य अभिमान न रखते हुए कर्म से निर्लिप्त रहेगा, उसे फल या उसके परिणामों को नहीं भोगना पड़ेगा। ३.असुर सम्बंधित लोक आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित है। अर्थात् वह लोग जो ईश्वर तत्व में विश्वास नहीं करते वहअज्ञान रूपी घोर अन्धकार से व्याप्त हैं। ऐसे लोग आत्मा का हनन करते हैं मृत्यु के पश्चात् वे उसी अन्धकार को प्राप्त होते हैं। ४. वह परमात्वतत्व अपने स्वरूप से विचलित न होने वाला एक है। वह मन से भी तेज गति वाला है, वह इन्द्रिया से प्राप्त होने वाला नहीं है, क्योंकि यह उन सबसे पहले (आगे) गया हुआ (विद्यमान ) है। यह स्थिर होने पर भी अन्य सब गतिशिलों का अतिक्रमण कर जाता है। उसके रहते हुए अर्थात् उसी में, उसी की सत्ता में ही वायु समस्त प्राणियों के प्रवृतिरुप कर्मों का विभाग करता है॥ ५. वह परमात्वतत्व गतिमान भी है और नहीं भी, वह दूर है और समीप भी है। वह सबके अन्दर है और सबके बाहर भी है॥ ६. जो (साधक) सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतो में भी आत्मा को ही देखता है वह इस (सर्वात्म दर्शन) के कारण ही किसी से घृणा नहीं करता॥ ७. जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मतत्व हो गये उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान् को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ? ८. वह परमात्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू (स्वयं ही होने वाला) है। उसी ने नित्यसिद्ध संवत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीती से अर्थों (कर्तव्यों अथवा पदार्थो) का विभाग किया है॥ ९. जो अविद्या की ही उपासना करते हैं अर्थात् जो इस माया जगत को सत्य मानते हैं वह (अविद्यारूप) घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो इसी अविद्या रूप उपासना में ही रत रहते है वे मानो उससे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं॥ १०. विद्या (देवताज्ञान) से और ही फल बताया गया है तथा अविद्या (कर्म) से और ही फल बताया गया है। अर्थात् दोनों के कर्मफल भिन्न हैं। ऐसा बुद्धिमान पुरूषों के द्वारा सुना गया है, जिन्होंने इस परम ज्ञान की व्याख्या की थी॥ ११. जो विद्या और अविद्या-को एक ही साथ जनता है अर्थात् जो दोनों को उस परमतत्व का ही अंग मानता है। वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व को प्राप्त कर लेता है॥ अर्थात् वह उस परमतत्व में लीन हो जाता है। १२. जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति) की उपासना करते हैं, वे घोर अंधकार में प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्य ब्रह्मा) में रत हैं वे मानो उससे भी घोर अंधकार में प्रवेश करते है॥ १३. कार्यब्रह्म की उपासना से और ही फल बताया गया है ; तथा अव्यक्तोपासना से और ही फल बताया गया है। ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होंने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी॥ १४. जो असम्भूति और कार्यब्रह्म है – इन दोनों को साथ साथ जानता है, अर्थात् दोनों को एक ही समझता है, वह कार्यब्रम्हा की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा (प्रकृतिलयरुप) अमरत्व को प्राप्त हो जाता है॥ १५. आदित्यमंडलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन ! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने के लिए तू उसे प्रकट कर दे, दृश्यमान बना दे॥ १६. हे जगत पोषक सूर्य ! हे एकाकी गमन करने वाले ! हे यम (संसार नियमन बनाने वाले) ! हे सूर्य (प्राण और रस का शोषण करने वाले) ! हे प्रजापति नंदन ! तू अपनी किरणों को हटा ले (अपने तेज को समेट ले)। तेरा जो अतिशय कल्याणमय रूप है उसे मैं देखता हूँ। यह जो आदित्यमंडलस्थ पुरुष है वह मैं ही हूँ॥ १७. अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायुरूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्म ही शेष रह जाये। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए संकल्प को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किये हुए संकल्प को स्मरण कर॥ १८. हे अग्ने ! हमें कर्म फल भोग के लिए सन्मार्ग पर ले चल।हे देव ! तू समस्त ज्ञान और कर्मो को जानने वाला है। हमारे संपूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार करते हैं॥

  • माता छिन्नमस्ता —ग्रह दोष और शत्रु का नाश करती हैं

    वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को छिन्नमस्ता जयंती मनाई जाती है। महाविद्या पंथ में दस देवी कही जाती हैं—काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, मातङ्गी और कमला। छिन्नमस्ता का अर्थ है, कटे हुए सिर वाली देवी। यह देवी खंड योग को दर्शाती हैं। जिसमें वह अपना ही सर काट कर अपने हाथ में पकड़ लेती हैं। यह देवी शक्ति, दिव्य स्त्री-ऊर्जा के उग्र स्वरुप का रूप है। देवी के स्वरुप पर दृष्टि डालें तो उनके एक हाथ में अपना खुद का मस्तक है और दूसरे हाथ में खडग धारण कर रखा है। माता तीन नेत्रों से शोभित हैं। और वह शयन करते हुए राति और कामदेव पर विराजमान हैं। वह मुंडमाला और सर्प माला से सुशोभित हैं। उनके केश खुले हुए हैं। इनके गले से रक्त की तीन धाराएं बह रही हैं। दो धार उनकी सहेलियाँ डाकिनी और शाकिनी के मुख पर जा रही है और तीसरी धार का वह स्वयं पान कर रही हैं। छिन्नमस्ता महादेवी का बीजाक्षर मंत्र ' हूं' है। हूं बीज मंत्र अपने आप में शिव और शक्ति का स्वरूप है। इस मंत्र के जाप का एक मात्र उद्देश्य शत्रुओं का नाश है। 'हूं' 'हकारम्' और 'ऊंकारम्' का योग है। 'हकारम' शक्ति बीज मंत्र है जिसका तात्पर्य स्थिर ज्ञान से है, 'ओम' शिव बीज मंत्र है जो आध्यात्मिक उन्नति देता है। इस बीजाक्षर मंत्र का जाप जोर से करने से आपके घर की सारी नकारात्मक शक्तियां का नाश हो जाए गा। इस मंत्र का जाप करने से ज्ञान, शत्रु विनाश और शिव की कृपा प्राप्त होती है। सायं में संध्या काल में माता की पूजा करनी चाहिए। छिन्नमस्ता माता को महाविद्या में प्रचण्ड चण्ड के नाम से पूजा जाता है। जो आदिपराशक्ति का स्वरुप हैं और नव चंडियों में से एक हैं। उनके अन्य नाम इंद्राणी, वज्रवैरोचनी और चंदा प्रचंडी देवी हैं। उनकी अष्ट शक्तियाँ हैं— ढाकिनी, वर्णिनी, एका लिंग, महाभैरवी, भैरवी, इंद्राणी, अष्टांगी और संहारिणी। यह शत्रु नाश की मुख्य देवी हैं। कहा जाता है कि भगवान परशुराम ने चिन्नमस्ता देवी की पूजा करके अपार बल अर्जित किया था। देवी की अराधना से आयु, आकर्षण, धन और कुशाग्र बुद्धि प्राप्त होती है। पुराणों के अनुसार यह देवी प्राणतोषिनी हैं। इनका शुद्ध हृदय से विधिवत पूजन करने वाला व्यक्ति रोग और शत्रुओं से मुक्त हो जाता है। माता छिन्नमस्ता —ग्रह दोष और शत्रु का नाश करती हैं-- शाम के समय प्रदोषकाल में दक्षिण-पश्चिम मुखी होकर नीले रंग के आसन पर बैठ जाएं। लकड़ी के पट्टे पर नीला वस्त्र बिछाकर उस पर छिन्नमस्ता यंत्र स्थापित करें। दाएं हाथ में जल लेकर संकल्प करें तत्पश्चात हाथ जोड़कर छिन्नमस्ता देवी का ध्यान करें। तेल में नील मिलाकर दीपक जलाएं और नीले फूल (मन्दाकिनी अथवा सदाबहार) अर्पित करें। सूरमे का तिलक लगाएं और इत्र अर्पित करें। लोबान से धूप करें। उड़द से बने मिष्ठान का भोग लगाएं। तत्पश्चात बाएं हाथ में काले नमक की डली लेकर दाएं हाथ से अष्टमुखी रुद्राक्ष माला से देवी के इस अद्भुत मंत्र का यथा संभव जाप करें। ॐ श्रीं ह्रीं ऐं वज्रवैरोचनये हूं हूं फट स्वाहा। जाप पूरा होने के बाद काले नमक की डली को बरगद के नीचे गाड़ दें। बची हुई सामग्री को जल प्रवाह कर दें। इस साधना से शत्रुओं का नाश होता है, रोजगार और नौकरी में प्रमोशन मिलती है और ग्रहदोष समाप्त होते हैं । कोर्ट-कचहरी, वाद-विवाद में निश्चित सफलता मिलती है। महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना से जीवन की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 80 किलोमीटर की दूरी पर रजरप्पा में छिन्नमस्ता देवी का मंदिर है.। यह मंदिर दूसरी सबसे बड़ी शक्तिपीठ के रूप में विख्यात है। यह मंदिर रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित है। कहा जाता है, यह मंदिर 6000 साल पुराना है, कुछ लोग इसे महाभारत कालीन मानते हैं। रजरप्पा मंदिर की वास्तुकला असम के प्रसिद्ध कामख्या मंदिर के समान है। यहां माता के मंदिर के साथ भगवान सूर्य और भगवान शिव के दस मंदिर हैं।

  • चमत्कारिक फायदे: प्रदोष व्रत में शिवाष्टक का पाठ

    प्रदोष व्रत प्रत्येक माह दोनों पक्षों में त्रयोदशी तिथि को मनाया जाता है। प्रायः ये देखा जाता है कि एकादशी को लोग विष्णु से और प्रदोष को शिव से जोड़ कर देखते हैं। कहा जाता है कि एक बार चंद्रमा क्षय रोग से ग्रसित हो गए थे, तो भगवान शिव ने त्रयोदशी तिथि को ही उन्हें रोग से मुक्त कर दिया था। तभी से इस दिन को प्रदोष कहा जाने लगा। एकादशी की तरह यह भी महीने में दो बार त्रयोदशी के दिन पड़ता है। एकादशी और त्रयोदशी दोनों का संबंध चंद्रमा से है, अतः इस दिन जो व्रत रख कर फलाहार करता है, वह कुंडली में अपने चंद्रमा को मजबूत करता है। माना जाता है कि चंद्रमा सुधारने से शुक्र भी सुधर जाता है, और शुक्र सुधरने से बुध भी अपने-आप ठीक हो जाता है। इस तरह से तीनों ग्रह शुभ फलदायी हो जाते हैं और जीवन सरल हो जाता है। इस व्रत से आप अशुभ संस्कारों को भी नष्ट कर सकते हैं। अलग-अलग दिन पड़ने वाले प्रदोष की महिमा अलग-अलग होती है, यानि सोमवार का प्रदोष, मंगल और अन्य वारों को आने वाले प्रदोष की महिमा अलग-अलग बताई गयी है। रविवार के प्रदोष को रवि-प्रदोष, सोमवार के प्रदोष को सोम-प्रदोष, मंगलवार के प्रदोष को भौम-प्रदोष, बुधवार के प्रदोष को सौम्यवारा प्रदोष, बृहस्पति वार के प्रदोष को गुरुवारा प्रदोष, शुक्रवार को भृगुवारा प्रदोष, शनि प्रदोष से पुत्र कामना की पूर्ति होती है। प्रदोष व्रत भगवान शिव को प्रसन्न कर जीवन में सुख-समृद्धि, लक्ष्मी प्राप्त करने का सुगम पाठ है। प्रदोषकाल में शिव पूजन अत्यन्त लाभदायक होता है। कहा जाता है कि रावण प्रदोष काल में शिव को प्रसन्न कर, सिद्धियां प्राप्त करता था। प्रातःकाल स्नानादि से पवित्र होकर शिव-स्मरण करते हुए निराहार रहें, सायंकाल, सूर्यास्त से एक घण्टा पूर्व, पुनः स्नान करके सुगंधि, मदार पुष्प, बिल्वपत्र, धूप-दीप तथा नैवेद्य आदि पूजन सामग्री एकत्र कर लें, पांच रंगों को मिलाकर पद्म पुष्प की प्रकृति बनाकर आसन पर उत्तर-पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाय और देवाधिदेव शिव का पूजन करें। पंचाक्षर मंत्र का जाप करते हुए जल चढ़ाएं और ऋतुफल अर्पित करें। जिस कामनापूर्ति हेतु व्रत किया जा रहा है, उसकी प्रार्थना भगवान शिव के समक्ष श्रद्धा-भाव से करें, शिव के साथ पार्वतीजी और नंदी का पूजन भी अवश्य करें और  शिवाष्टकम् का पाठ करें। इस स्त्रोत्र का पाठ करने से सुन्दर स्त्री, पुत्र और धन की प्राप्ति होती है। प्रदोष व्रत दोनों पक्षों की त्रयोदशी को करना चाहिए, प्रदोष व्रत अति सरल और सभी प्रकार का फल देने वाला है। स्कन्द आदि पुराणों में इस व्रत की बड़ी महिमा बताई गई है। प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव को सिंदूर, हल्दी, तुलसी, केतकी और नारियल का पानी बिल्कुल भी न चढ़ाएं। चमत्कारिक फायदे: प्रदोष व्रत में शिवाष्टक का पाठ प्रभुं प्राणनाथं विभुं विश्वनाथं जगन्नाथ नाथं सदानन्द भाजाम् । भवद्भव्य भूतेश्वरं भूतनाथं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 1 ॥ गले रुण्डमालं तनौ सर्पजालं महाकाल कालं गणेशादि पालम् । जटाजूट गङ्गोत्तरङ्गैर्विशालं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 2॥ मुदामाकरं मण्डनं मण्डयन्तं महा मण्डलं भस्म भूषाधरं तम् । अनादिं ह्यपारं महा मोहमारं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 3 ॥ वटाधो निवासं महाट्टाट्टहासं महापाप नाशं सदा सुप्रकाशम् । गिरीशं गणेशं सुरेशं महेशं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 4 ॥ गिरीन्द्रात्मजा सङ्गृहीतार्धदेहं गिरौ संस्थितं सर्वदापन्न गेहम् । परब्रह्म ब्रह्मादिभिर्-वन्द्यमानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 5 ॥ कपालं त्रिशूलं कराभ्यां दधानं पदाम्भोज नम्राय कामं ददानम् । बलीवर्धमानं सुराणां प्रधानं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 6 ॥ शरच्चन्द्र गात्रं गणानन्दपात्रं त्रिनेत्रं पवित्रं धनेशस्य मित्रम् । अपर्णा कलत्रं सदा सच्चरित्रं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 7 ॥ हरं सर्पहारं चिता भूविहारं भवं वेदसारं सदा निर्विकारं। श्मशाने वसन्तं मनोजं दहन्तं, शिवं शङ्करं शम्भु मीशानमीडे ॥ 8 ॥ स्वयं यः प्रभाते नरश्शूल पाणे पठेत् स्तोत्ररत्नं त्विहप्राप्यरत्नम् । सुपुत्रं सुधान्यं सुमित्रं कलत्रं विचित्रैस्समाराध्य मोक्षं प्रयाति ॥

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